Prem Ka Panth Nirala par nibandh
भूमिका
प्रेम शब्द बड़ा ही कोमल , मधुर और रोमांच भरा है। इसका कोई रूप , कोई आकार या शरीर नहीं हुआ करता। हाँ , साहित्य – शास्त्र के आचार्यों ने इसका एक रंग अवश्य माना है। वह रंग है लाल! खून जैसा लाल नहीं , सुबह सूर्य उगने से पहले आकाश पर छाने वाली उषा की लाली के समान उजला। पवित्र और मधुर भावना जगाने वाला यह उस समय स्पष्ट देखा जा सकता है प्रेमीजनों के चेहरों पर कि जब वे एक – दूसरे के सामने आते हैं या उनके सामने उन्हीं के प्रेम की चर्चा की जाती है।
जो हो , प्रेम का भाव मनुष्य के हृदय का सबसे अधिक सुन्दर , सबसे अधिक कोमल और मधुर माना जाता है। प्रेम भाव के साथ जब श्रद्धा का भाव भी जुड़ जाता है , तब जो नया भाव उदय होता या बनता है , उसे भक्ति भाव कहा जाता है। शायद इसी कारण प्रेम को पूजा माना जाता है। स्वार्थ और अहंकार का , अपनेपन का त्याग और बलिदान माना तथा कहा जाता है।
भक्ति मय प्रेम
कबीर , मलिक मुहम्मद जायसी आदि सन्तों ने तो प्रेम को भक्ति के लिए भी प्रयुक्त किया है। बल्कि प्रेम को भक्ति ही कहा है। प्रेम के पंथ को कठिन और निराला माना तथा कहा है। इसे त्याग और बलिदान माना है:—
” यह तो घर है प्रेम का , खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे भुई धरै , तब पैठे घर माहिं। “
अर्थात प्रेम का घर या पंथ निराला है। उस पर चलना खाला जी का घर नहीं है। सिर उतार कर भूमि पर रख देने वाला , अर्थात अहंकार का त्याग कर देने वाला व्यक्ति ही इस राह पर चल सकता है। Prem Ka Panth Nirala par nibandh
प्रेम के स्वरूप
प्रेम के कई रूप और अर्थ होते हैं। मोह , ममता स्नेह , प्यार और भक्ति आदि सभी प्रेम के ही रूप और अर्थ हैं। प्रेम का भाव जब स्वार्थ या किसी प्रकार के लोभ – लालच में पड़ जाता है , तो उसे मोह कहा जाता है। माता – पिता या बड़े – बूढ़ों के मन में बच्चों के प्रति — विशेषकर माता का अपनी सन्तानों के प्रति जो प्रेम का भाव रहा करता है , उसे ममत्व या ममता भाव कहा जाता है। बहन – भाई का आपसी प्रेम – भाव स्नेह कहा जाता है। समान आयु वालों के मन में जो आपसी आकर्षण का भाव या प्रेम का बंधन हुआ करता है , उसे प्यार कहा जाता है। प्रेम का यह भाव आपस में विरोधी लिंग वालों में भी हो सकता है और समान लिंग वालों में भी! विरोधी लिंग से अर्थ लड़का – लड़की से है।
वर्तमान में प्रेम का स्वरूप
आजकल प्रेम शब्द को जो आम जीवन में प्रचलित अर्थ में प्रयोग किया जाता है , वह युवक – युवतियों या पति – पत्नी के सम्बन्धों के बारे में भी किया जाता है। सच्चा प्रेम चाहे किसी भी रूप आकार वाला हो , वह पवित्र माना जाता है , उच्च एवं महान कहा जाता है। उसमें अगर थोड़ा – सा भी लोभ – लालच या स्वार्थ का भाव आ जाए उसे प्रेम ना कह कर वासना कहा जाता है , उसे पवित्र नहीं अश्लील माना जाता है ।
ईश्वर का रूप है प्रेम
प्रेम का केन्द्र जड़ – चेतन कोई भी प्राणी या पदार्थ बन सकता है। मनुष्यों के मन में मनुष्यों के प्रति तो प्रेम – भाव रहा ही करता है , देवी – देवताओं और भगवान के प्रति भी हो सकता है। यहाँ तक कि लोगों को कुते , बिल्लियों , थोड़ों के प्रेम में पागल भी देखा जा है। पेड़ों से भी कई लोग बच्चों के समान ही प्रेम करते देखे जा सकते है। इस प्रकार संसार में प्रेम का क्षेत्र बड़ा ही विस्तृत हुआ करता है। उसका कोई आदि नहीं रहता। इसी कारण उसे ईश्वर की तरह व्यापक तत्व माना जाता है। उसके पंथ को निराला कहा जाता है।
प्रेम के संसार में अपने पराये का भेद कतई नहीं रहता। इसमें किसी प्रकार की जाति – पाँति , ऊँच – नीच एवं छुआछूत का भेद भी नहीं रहता , किया ही नहीं जाता। जैसे ईश्वर के लिए सभी समान है , उसी प्रकार प्रेम की दृष्टि में भी सब समान हुआ करते हैं। प्रेम की खातिर लोगों को तप – त्याग करते हुए तो देखा हो जाता है , प्राणों का बलिदान करते भी देखा जा सकता है। प्रेम की रक्षा के लिए प्रेमीजनों ने बड़े सुख – साधनों को साम्राज्यों तक को ठुकरा दिया। वे जंगल – जंगल मारे – मारे फिरते रहे , कष्ट सहते रहे। अपने तन की बड़ों तक उतार कर दे दी , पहाड़ों को काट डाला और नदियों को पाट डाला , ऐसा अनोखा होता है प्रेम का संसार और पंथ।
देश प्रेम की भावना
प्रेम का सबसे उत्कृष्ट , उन्नत और महान रूप माना जाता है देश – प्रेम का। देश – प्रेमियों ने अपने प्रेम को निभाने , उसकी रक्षा के लिए क्या – क्या नहीं किया ? कितने प्रकार के कष्ट नहीं सहे ? नवयुवक देश – प्रेम के कारण ही गले में पड़े फांसी के फन्दों को चूमकर झूल गये , पर आह तक न भरी। वह देश – प्रेम का भाव ही होता है , जिसकी प्रेरणा से वीर सैनिक लड़ते – लड़ते प्राण त्याग देता है। घर – द्वार , माता – पिता , पत्नी – पुत्र किसी को भी परवाह नहीं करता। देश – प्रेमियों ने शत्रुओं की तोपों के सामने अपने सीने अड़ा दिये। घर – बार त्यागकर विदेशों में जाकर देश का सम्मान बचाये रखने के प्रयत्न किये।
देश – प्रेम का भाव ही उन्नत होकर राष्ट्र प्रेम बन जाया करता है। इन सबसे बड़ा होता है मानव और मानवता के प्रति प्रेम – भाव , जो हर प्रकार के स्वार्थ का त्याग करने की प्रेरणा दिया करता है। मानवता के प्रेम का भाव देश – काल की सारी सीमाएँ अपने आप ही समाप कर दिया करता है। उसके लिए जाति , धर्म आदि का भी महत्व नहीं रह जाता। देश भी पीछे छूट जाया करता है। इसी कारण इसे सबसे उच्च निराला भाव माना जाता है। Prem Ka Panth Nirala par nibandh
प्रेम में त्याग और बलिदान
प्रेम एक महाभाव है। वह त्याग और बलिदान की प्रेरणा तथा शिक्षा दिया करता है। यही वह निराला पंथ है , जिस पर चलकर ‘ जियो और जीने दो ‘ को मनुष्यता की भावना जन्म लेकर पला – पुसा करती है। इसी दृष्टि से प्रेम गर्व से जीना मरना सिखाया करता है। हमें उदारता , शान्ति और भाईचारे की प्रेरणा देता है। सभी के प्रति सहनशील बनना सिखाता है। कष्टों मुसीबतों को सहने की शक्ति देता है। श्रद्धाभाव के साथ जुड़कर जब प्रेम भाव भक्ति का रूप धारण कर लेता है , तब अपने प्रभाव से प्रेम – दीवानी मौरा को पिलाये जाने वाले विष को अमृत बना देता है , काले नाग को शालियाम की मूर्ति के रूप – गुण में बदल दिया करता है।
तब वह श्रीकृष्ण भगवान की वंशी की धुन , भीलनी के जूठे बेर और राम के अचूक वाण बन जाया करता है। वह सरमद जैसे फकीर को सूफी सन्त को प्रेरणा देता है कि अपनी चमड़ी उतार कर बादशाह के पास भेज दे पर अपने अल्लाह को छोड़ और किसी के सामने सिर न झुकाये। वह मंसूर को प्रेरणा देता है कि सूली पर चढ़ जाए , पर अपने महबूब परमात्मा के सिवा कहीं भी झुके नहीं। इन्हीं सब कारणों से प्रेम को एक नशा माना जाता है , जो एक बार चढ़कर कभी उतरा नहीं करता। यही नशा पीकर गुरु नानक देव ने कहा था
“ नाम खुमारी नानका , चढ़े सु उतरे नाहिं । “
क्योंकि प्रेम एक नशा भी है और नशा आदमी को अन्धा भी बना दिया करता है , इसी कारण प्रेम को अन्धा भी कहा जाता है। अन्धा अर्थात आँखें बन्द करके , मग्न होकर प्रेम – पंथ पर बढ़ जाने वाला व्यक्ति।
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कठिन और निराला प्रेम पंथ
प्रेम की इस राह पर हर कोई नहीं चल पाता। इस रास्ते पर चलना ‘ खाण्डे की धार ‘ पर चलने के समान कठिन है। सन्त कबीर के शब्दों में :
” प्रेम-पंथ अति कठिन है , ज्यों खाण्डे की धार ।
जो हाले सो गिर पड़े , ठहरे उतरे पार ॥ “
इस कठिन और निराले पंथ पर कोई मीरा , कबीर , नानक और सरमद , मंसूर जैसा मरजीवड़ा ही चल सकता है। और लोग भी चलने का दम भरते आ रहे हैं , आज भी भरा करते हैं , पर वासना और स्वार्थों की बाहरी फिसलन पर ही फिसल कर रह जाया करते हैं। इस निराले पंथ पर चलने के लिए चाहिए सम्पूर्ण समर्पण , त्याग और बलिदान का उत्साही भाव , मस्ती , ऐसी मस्ती या तल्लीनता , कि जो और सब कुछ भुला दे। याद रहने दे — केवल प्रिय का रूप और नाम। बस , और कुछ भी नहीं !
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