विज्ञान और धर्म पर निबंध | vigyan aur dharm par nibandh

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भूमिका

विज्ञान और धर्म व्यावहारिक जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलू है। विज्ञान आधुनिक जीवन का आधार है और धर्म परम्परा से चले आ रहे मानव – जीवन , उसके मूल्यों , आदर्शी , विश्वासों और हृदय का प्रमुख आधार स्तम्भ रहा है , आगे भी रहेगा। विज्ञान जहाँ तर्क पर आश्रित है , वहाँ धर्म श्रद्धा एवं विश्वास पर। विज्ञान आँखें खोलकर चलता है तो धर्म आँखें बन्द कर चलने का नाम है। अत: इनकी एकत्र स्थिति प्रायः असम्भव – सी ही प्रतीत होती है। यूरोप का इतिहास इसका साक्षी है कि वहाँ इन दोनों में परस्पर भीषण संघर्ष होता रहा है। संसार में आज भी यह संघर्ष एकदम समाप्त नहीं हो गया है। किसी न किसी रूप में आज भी जारी है।

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धर्म की विशेषता

धर्म का जन्म हृदय से होता है। वह श्रद्धा का विषय है और विश्वास पर आश्रित है। यह मानव की उच्च मनोभावना है , जिसमें सभी सम्भव सद्गुणों और उदात्त मानवीय आदर्शों का समावेश होता है। अहिंसा , सत्य , अचौर्य , ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह , आत्मसंयम , परोपकार आदि उच्च विचारों को धर्म का आवश्यक अंग माना गया है। इन उत्तम गुणों को धारण करने वाले मानव को देवता के समान उच्च माना गया है। क्योंकि ऐसे महात्माओं ने स्वार्थ भावना को छोड़कर परहित करने में ही अपने अमूल्य जीवन को समर्पित कर दिया था। संसार के प्रत्येक भाग में बड़े-बड़े सन्त , महर्षि एवं महात्मा हो गये हैं , जिन्होंने अपने ज्ञान एवं सेवा से संसार को सन्मार्ग दिखाया और दुखियों की सेवा की।

हेय मार्ग को छोड़कर उपादेय मार्ग को ग्रहण करने का दिया तथा स्वयं उस मार्ग पर चले। इसी कारण लोग अपनी सुविधाओं की अपेक्षा साधु – महात्माओं का विशेष ध्यान रखने लगे। उनके समागम से लोगों को शान्ति मिलने लगी। जिसका परिणाम यह हुआ कि धर्म तथा धर्मात्मा लोग बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखे जाने लगे। क्योंकि उनमें सद्गुणों को धारण करने की अद्भुत क्षमता थी और धर्म वास्तव में वही है जो कि सद्वृत्तियों , सद्गुणों को धारण करने की क्षमता रखता है। विज्ञान में यदि यह शक्ति नहीं , तो उसे धर्म के समान मानव की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं माना जा सकता। उसे मात्र बाह्य या भौतिक उपलब्धि ही स्वीकारा जा सकता है।

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धार्मिक पतन

समय की गति बड़ी विचित्र है। एक समय जो बात पवित्र , लाभदायक , शान्तिप्रद मानी जाती है , वही समय पाकर हानिकारक बन जाती है। धर्म के वास्तविक लक्षणों से गिरकर धार्मिक संस्थाओं का भी यही हाल हुआ। जो मठ तथा मन्दिर जनता की श्रद्धा के प्रतीक मे , जिनमें लोगों ने मुक्त हस्त से दान दिया था , जिनसे उन्हें शान्ति प्राप्त होती थी , वे ही पखण्ड के अड्डे बन गये। परोपकार की भावना की अपेक्षा उनमें स्वार्थ की भावना का उदय हुआ। योग – तपस्या एवं परहित को छोड़कर वे भोगी , विलासी एवं अकर्मण्य हो गये।

जो धर्म समाज के लिए कल्याणकारी था , वही उसके पतन का कारण बन गया। तथाकथित पण्डे – पुरोहित दान एवं यज्ञ के बल पर यजमान को स्वर्ग भेजने का दावा करने लगे। धर्म के ठेकेदार लोगों से रुपया लेकर पापों का प्रायश्चित्त कराने के लिए उन्हें क्षमापत्र देने लगे। इस प्रकार धर्म के नाम पर जनता के साथ अनेक अन्याय एवं अत्याचार किये जाने लगे। परिणामतः धर्म में से धारण करने की शक्ति ही लुप्त हो गयी। वह मात्र बाह्याचार और दिखावा बनकर रह गया। vigyan aur dharm par nibandh

विज्ञान का प्रादुर्भाव

जिस समय सत्य धर्म ने अंधश्रद्धा एवं अंधविश्वास का बाना धारण कर लिया , ठीक उसी विज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ। वह संक्रान्तिकाल था। विज्ञान , जैसा कि हम जानते समय हैं , तर्क एवं प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा सिद्ध की गयी बात को ही मानना है। अतः विज्ञान ने जब अपना सिर उठाया , संसार में एक क्रान्ति – सी फैल गयी। तथाकथित धर्म के ठेकेदार इस नवीन शक्ति से घबरा गये। क्योंकि अब उनकी ढोल की पोल खुल रही थी। अतः इन स्वार्थी लोगों ने विज्ञान की प्रगति को रोकने के लिए प्रयत्न किया।

वे वैज्ञानिकों को विधर्मी , भ्रष्टाचारी , नास्तिक आदि कहकर जनता को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करने लगे। भोली जनता अशिक्षित होने के कारण वास्तविक तथ्य को समझने में असमर्थ रही। अत: अंधश्रद्धालु व्यक्तियों ने वैज्ञानिकों तथा उनकी खोजों का विरोध किया। उन्हें नृशंस यंत्रणाएँ और कठोर दण्ड भी दिये गये। परन्तु सत्य की प्रगति इतनी सरलता से नहीं रुक सकती थी।

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वैज्ञानिकों के प्रयास

सत्य के अन्वेषकों ने अपने सिद्धान्तों के पक्ष में अपने प्राणों की बाजी लगा दी। महान वैज्ञानिक ‘ गैलीलियो ‘ को इसलिए कारावास में डाल दिया गया क्योंकि उसने “ पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है ” इस कथन की खोज की थी। अन्य अनेक सत्यान्वेषकों को भी यातनाएँ सहनी पड़ीं। फिर भी वे अपने मार्ग से विचलित न हुए। उनकी दृढ़ता और अनवरत प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप ही आज हम वैज्ञानिक युग में खुली साँस ले रहे हैं।

अपनी ही आन्तरिक ऊर्जा के बल पर शनैः शनैः विज्ञान प्रगति के पथ पर बढ़ा। अनेक ऐसे तथ्यों की खोज की गयी जिनसे मानव जाति दाँतों तले अंगुली दबाने लगी। अब मानव का जल , थल तथा नम पर समान अधिकार हो गया। विद्युत के आविष्कार ने तो मानव को सुविधा के लिए अनेक उपकरण ला खड़े किये। आज तो विज्ञान इतनी प्रगति कर चुका है कि नवीन आविष्कारों को देखकर सहसा उन पर विश्वास नहीं होता। बेतार का तार , सिनेमेटोग्राफी , दूरदर्शन , एक्स – रे , परमाणु शक्ति आदि ऐसे ही अद्भुत आधुनिक आविष्कार है। आज विज्ञान और उसके साधनों द्वारा हर क्षेत्र में प्रगति ही मानव का धर्म बन गया है।

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धर्म और विज्ञान में संबंध

स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन प्रकृति का नियम है। अतः वह विज्ञान जिसका प्रादुर्भाव जनहित के लिए हुआ था , सत्य मार्ग दर्शाना ही जिसका परम लक्ष्य था , वह भी धर्म की तरह समय की गति के कारण या मानव के स्वार्थ के कारण रक्षक से भक्षक बनता जा रहा है। कल्याणकारी न लेकर विनाशकारी होता जा रहा है। आज ऐसे – ऐसे प्रक्षेपास्त्रों का निर्माण हो चुका है , जिनके प्रयोग से समस्त मानव जाति का कुछ ही समय में विनाश सम्भव है। अतः यह कहना सर्वथा उपयुक्त है कि जिस प्रकार धर्म का सीमित स्वार्थान्ध रूप हानिप्रद था , उसी प्रकार विज्ञान का भी।

एक लेखक ने कहा , ” विज्ञान ने हमें मछली की तरह तैरना , पक्षी की भाँति आकाश में उड़ना तथा एक स्थान पर बैठे हुए ही सब जगह के समाचारों से अवगत होना तो सिखाया ; परन्तु शान्ति के साथ भूमि पर कैसे चलना चाहिए। यह सिखाने में वह असफल रहा है।” सचमुच , आज विज्ञान धनी , शक्तिशाली तथा स्वार्थी देशों और लोगों का अस्त्र बनकर रह गया है। निर्धन , दुर्बल तथा सरल मनुष्यों को उसने या तो ग्रास बनाया है या दास , ठीक उसी प्रकार जैसे अंध धर्म ने बना लिया था।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि विज्ञान और धर्म दो विरोधी तत्त्व न होकर एक – दूसरे के सहायक तथा पूरक हैं। धर्म का उद्गम हृदय से होता है तथा विज्ञान का मस्तिष्क से। विज्ञान तर्क एवं प्रत्यक्ष प्रमाणों पर आधारित है। उसी प्रकार धर्म में अन्य श्रद्धा की जगह पर वैज्ञानिक तर्क बुद्धि होनी चाहिए। तभी धर्म सच्चा कल्याणकारी रूप धारण कर मंगलदायक बन सकता है। इसी प्रकार विज्ञान में स्वार्थ पूर्ति के अपेक्षा एवं सेवा के सहज मानवीय भाव अवश्य आने चाहिए , तभी विज्ञान कल्याणकारी हो सकता है। परोपकार तथा सेवा की यह भावना धर्म के द्वारा ही पैदा की जा सकती है।

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