sarhul par nibandh
भूमिका
प्रकृति पर्व सरहुल वसंत ऋतु में मनाए जाने वाला जनजातियों का प्रमुख पर्व है। यह पर्व नये साल की शुरुआत का भी प्रतीक माना जाता है। पतझड़ में पेड़ों की पुरानी पत्तियाँ गिर जाती हैं। टहनियों पर नयी पत्तियों के साथ वसंत ऋतु का आगमन होता है। आम मंजरने लगता है सरई और महुआ के फूलों से वातावरण सुगन्धित हो जाता है। इसी मौसम में सरहुल का पर्व मनाया जाता है। सरहुल आदिवासियों का प्रमुख पर्व है, जो झारखंड, उड़ीसा और बंगाल के आदिवासी द्वारा मनाया जाता है।
सरहुल पर्व क्यों और कैसे मनाया जाता है
सरहुल पर्व की शुरूआत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया से होती है। इस पर्व में ‘साल’ के पेड़ों पर खिलने वाले फूलों का विशेष महत्व है। मुख्यतः यह पर्व चार दिनों तक मनाया जाता है। सरहुल पर्व के ‘पहले दिन’ मछली के अभिषेक किए हुए जल को घर में छिड़का जाता है। ‘दूसरे दिन’ उपवास रखा जाता है। तथा गांव का पुजारी जिसे ‘पाहन’ के नाम से जाना जाता है , हर घर की छत पर ‘साल के फूल’ को रखता है। तीसरे दिन पाहन द्वारा उपवास रखा जाता है तथा ‘सरना’ (पूजा स्थल) पर सरई के फूलों की पूजा की जाती है।
पूजा स्थान में बलि चढ़ायी गयी मुर्गी तथा चावल को मिश्रित कर खिचड़ी (लेटे) पकायी जाती है , जिसे सरना देवी पर चढ़ाने के उपरान्त सभी ग्रामवासियों को प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। चौथे दिन ‘गिड़िवा’ नामक स्थान पर सरहुल फूल का विसर्जन किया जाता है। एक परंपरा के अनुसार इस पर्व के दौरान पाहन मिट्टी के घड़ों को ताजे पानी से भरता है। अगले दिन प्रातः पाहन मिट्टी के घड़ों को देखता है। जितना पानी घड़े से गिरता है उसी अनुपात में उस वर्ष वर्षा होने का अनुमान लगाया जाता है ।
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सरहुल से जुड़ी कथाएं
सरहुल के बारे में कई कहानियां हैं, जिनमें से एक महाभारत पर आधारित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाभारत युद्ध के दौरान, आदिवासियों ने कौरवों का साथ दिया, जिसके परिणामस्वरूप पांडवों के हाथों कई मुंडा सरदारों की मृत्यु हो गई। नतीजतन, उनके शरीर को साल के पेड़ के पत्तों और शाखाओं में ढक दिया गया ताकि उनकी पहचान की जा सके। इस संघर्ष में, यह देखा गया कि साल के पत्तों से ढके मृत पीड़ित सड़ने से बच गए और उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ, जबकि अन्य वस्तुओं से ढके शरीर सड़ गए। कहा जाता है कि साल के पेड़ों और पत्तियों में आदिवासियों की आस्था इसके परिणामस्वरूप मजबूत हुई है, जिसे सरहुल उत्सव के रूप में जाना जाता है।
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निष्कर्ष
सरहुल आदिवासियों की परंपरा, संस्कृति और जीवन शैली से जुड़ा एक पर्व है और इस समाज के लोग इसके बाद सभी शुभ कार्य शुरू करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप खेती कर रहे हैं या कुछ और कर रहे हैं। इस उत्सव के बाद ही किसी काम में नए पत्तों का प्रयोग किया जाता है। वैसे भी, क्योंकि आदिवासी सभ्यता ने हमेशा प्रकृति को पूजनीय माना है, यह त्यौहार सिर्फ पर्यावरण संरक्षण के उत्सव से कहीं बढ़कर है। इसके बजाय, यह लोगों को संस्कृति, सभ्यता, एकजुटता और अखंडता को बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है। इस दिन सरई या सखुआ के पेड़ की विशेष रूप से पूजा की जाती है।