चाँदनी रात में नौका विहार पर निबंध|chandni raat mein nauka vihar

chandni raat mein nauka vihar

भूमिका

मनुष्य और प्रकृति का संबंध पैदाइशी है। स्वभाव से ही यह प्रकृति कोमल, सुंदर और मोहक है। मनुष्य स्वभाव से ही प्रकृति-प्रेमी और आनंद-प्रिय प्राणी है। वह इसके लिए नए-नए ढंग और साधन खोजता-अपनाता रहता है। नौका-विहार वह भी चाँदनी रातों में, मानव जीवन के प्रकृति के साथ जुड़ने वाले ऐसे ही प्रयत्नों की एक कड़ी है।

Chandni Raat Mein Nauka Vihar

chandni raat mein nauka vihar

प्रस्थान

ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की रात। साँझ ढलते ही वायु महकने लगी थी। सितारे झिलमिला उठे। अपनी पूर्व निर्धारित योजना के कारण अब हमें घर का मोह न रोक सका। नौका-विहार के लिए बैलगाड़ियाँ जुत गई। हम उचककर उन पर सवार हो गए। चूँचक-चूँचक करती हुई गाड़ियाँ चली। टन-टन घंटी बजाते हुए बैल सोन नदी के तट की ओर दौड़ पड़े। कहते हैं, जेष्ठ मास शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा नदी स्वर्ग से इस पृथ्वी पर आयी थी। उसी स्मृति में प्रतिवर्ष खुशियाँ मनाई जाती है। दीपक जलाए जाते हैं और गंगा दशहरा को पूजन-अर्चन किया जाता है।

सोन नदी गंगा की प्रसिद्ध सहायक नदियों में से एक है, जो मध्य प्रदेश के अमरकंटक पर्वत से निकलकर 350 मिल का चक्कर काटती हुई पटना के निकट गंगा में गिरती है। डिहरी नामक स्थान पर इस नदी पर बाँध बाँधकर इसके दोनों किनारों से नहरें निकाली गई है, जिसके कारण वह स्थान अत्यंत रमणीय बन गया है। यही हमारा विहार-स्थल था। वहाँ बैल गाड़ियों द्वारा रात का पहला पहर बीतते न बीतते पहुँच गए।

प्राकृतिक दृश्य

वहाँ का दृश्य अत्यंत लुभावना था। रुपहले तटों पर चारों ओर चाँदनी का साम्राज्य था। ऊपर स्वच्छ आकाश में चंद्रमा मुस्कुरा रहा था और नीचे खिले थे टिशु के उजले- उजले फूल। चाँदनी के शीतल प्रकाश में सारी धरती ऐसी लगती थी, मानो चाँदी से मढ़ दी गई हो। चारों ओर धवल प्रकाश था। मानो कोई छुप-छुपकर अम्बर से हरे-भरे अँगना में चाँदी के फूल बरसा रहा हो, जिसकी मुस्कान चावल के खेतों पर अंकित हो गई हो। ऐसे उज्ज्वल और मोहक वातावरण में कविवर सुमित्रानंदन पंत की कविता नौका-विहार का स्मरण हो आया।

“चाँदनी रात का प्रथम प्रहर। हम चले नाव लेकर सत्वर।”

हम लोग भी चाँदनी रात में प्रकृति का आनंद लेने के लिए नौका पर सवार हो धाराप्रवाह पर बह चले।

कुछ देर तक मल्लाह नाव को खेता रहा, बाद में हम स्वयं नौका खेने लगे। एक चप्पू आगे बैठे हुए एक साथी ने पकड़ लिया और दूसरा मैंने। चप्पू जल में पड़ते तो छींटे उछल-उछलकर मोतियों की तरह बिखर-बिखर जाते थे। धीरे-धीरे नौका तट से धारा की ओर सरकने लगी। लहर-पर-लहर और नौका उन पर उभरती-उतरती चलने लगी। रात्रि के सन्नाटे में चप्पुओं की छप-छप ध्वनि कानों में अमृत घोल रही थी। लगता था कि हम पानी की धारा पर नहीं, बल्कि चाँदनी की धारा पर बहे जा रहे हैं।

chandni raat mein nauka vihar

अन्य मनोहारी दृश्य

नौका पर सवार हम लोग निरंतर आगे बढ़ रहे थे। बाँध के ऊपर से निर्मल जल की चादर नीचे गिर रही थी। उसका संगीतमय कर्ण मधुर शब्द, विशाल नदी का चमचमता दृश्य, शीशे के समान स्वच्छ जल पर चाँदी जैसे बादलों का मनोरम प्रतिबिंब, हरे-भरे किनारों के मध्य, जल का कल- कल करते हुए बहना आदि संपूर्ण दृश्य बड़ा आकर्षक लग रहा था। नाव में बैठे-बैठे हमें “अपलैंड पार्क” दिखाई दिया, जो एक ऊँचे टीले पर बना हुआ है। उस समय वह इंद्र के नंदन कानन-सा मोहक लग रहा था।

हमें बड़ी नहर के अंतिम छोर पर ठीक नदी के किनारे एक बड़ा सा घंटा लगा हुआ दिखाई दिया, जो पानी पड़ने पर स्वयं जोर-जोर से बजने लगता है। मल्लाहों ने बताया कि घंटे की बगल में एक लेखनी भी रखी हुई है, जो पानी के घटने-बढ़ने का तिथि क्रम से पूरा विवरण स्वयं अंकित कर देती है। यह जानकारी वास्तव में चौंकाने वाली थी। बाँध की निचली ओर हमने वह स्थान भी दूर से देखा, जहाँ जनवरी के मध्य में संक्रांति मेला लगता है। नाव से तट की ओर हमें बिजलिओं की दीवाली-सी जगमगाती हुई दिखाई दी। उसे देख मन में कई प्रकार की रंगीन कल्पनाएँ उभरने लगी। अनेक प्रकार के प्रश्न उभरने लगे।

एक नगर का नज़ारा

मैंने मल्लाह से पूछा– वह कौन-सा स्थान है? वह बोला– यह डालमिया नगर है, जो डिहरी का सबसे बड़ा औद्योगिक तथा व्यापारिक केंद्र है। इसकी गिनती देश के बड़े-बड़े औद्योगिक केंद्रों में होती है। वह देखिए फैक्ट्री क्षेत्र जिसमे चीनी, कागज, सीमेंट और वनस्पति घी की मिलों के अतिरिक्त कर्मचारियों के लिए बंगले, क्वार्टर, अस्पताल और स्कूल आदि है, जो लगभग साढ़े सात वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं।

नाव कुछ और आगे बढ़ी। उससे दूर बहुत दूर सोन नदी के ऊपरी बहाव के किनारे पर हमें धुँधली-सी एक पहाड़ी दिखाई दी। पूछने पर मल्लाह ने बताया — यह रोहतासगढ़ की पहाड़ी कहलाती है, जिस पर सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व ने एक किला बनवाया था। कभी यह इस प्रदेश का सबसे पक्का किला था। अब वहाँ काफी घना जंगल है। सुनकर हमारा मन एक बार अपने इतिहास पुराण के सुनहरे पृष्ठों में खो गया। उसकी उज्ज्वलता चारों ओर उभरी फैली चाँदनी को और भी सघन तथा झलमल कर गई।

वापसी

अब तक रात काफी बीत चुकी थी। मन फिर भी उत्साह और उमंग से भर रहा था। उस शांत- एकांत वातावरण में हम प्रकृति का प्रत्यक्ष दर्शन पा रहे थे। दूर से झरनों के झर-झर स्वर सुनाई दे रहे थे। सितारों की धीमी-धीमी चमक मन को मुग्ध कर रही थी। तट पर फलों से लदी महकती झाड़ियाँ और हरे-भरे पौधे लहरा रहे थे। मानो अभी चाँदनी में स्नान करके निकले हो। एक और पर्वत की पंक्तियाँ थी और दूसरी ओर हरा-भरा मैदान।

उसी सौंदर्य को निहारते हुए हम भी रात भर सो नहीं पाए। हमारी नाव किनारे पर जब लगी तब पूर्व में उषा झाँकने लगी थी। इधर नौका-विहार की आनंद की अनुभूति थी और उधर आकाश में विधाता द्वारा बिखरा हुआ अमित अरुण वर्ण सौंदर्य। उसे देखकर सहसा कवि प्रसाद की ये पंक्तियाँ मेरे मुख से निकल गई–
“अंबर पनघट में डुबो रही, तारा-घट उषा नागरी।”

इन पंक्तियों को बार-बार गुनगुनाते हुए हम लोग घर लौट आए उस रात का सौंदर्य और स्मरण आज भी रोमांचित कर जाता है।

Post a Comment

Previous Post Next Post