तुलसीदास पर निबंध | Tulsidas par nibandh

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भूमिका

तुलसीदास का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ जब धर्म, समाज, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में विषमता, विभेद एवं वैमनस्य व्याप्त था। शैवों और वैष्णवों में पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष बढ़ता जा रहा था। तुलसी से पूर्व संत कवियों ने सारे भारत में भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रयास किया, किंतु तुलसीदास ने इस विषमता को दूर करने के लिए समन्वय का अनूठा प्रयास किया। तुलसीदास के समय में अनेक धार्मिक मत एवं दार्शनिक विचारधारा प्रचलित थे जिनमें परस्पर विरोध व्याप्त था। तुलसीदास ने इन विरोधों को बहुत अंशों में दूर कर अपनी साम्यवादी दृष्टि का परिचय दिया और अपना एक निश्चित दार्शनिक मत स्थापित किया जो प्रमुख रूप से रामचरितमानस एवं विनयपत्रिका में उपलब्ध होता है।

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जीवन परिचय

तुलसीदास हिंदी साहित्य के महानतम कवियों में से एक हैं। उनकी अक्षय कीर्ति का आधार स्तम्भ उनके द्वारा अवधी भाषा में रचित महाकाव्य रामचरितमानस है, तथापि उनकी अन्य रचनाएं भी अद्वितीय है। तुलसीदास की प्रमाणिक जीवनी उपलब्ध नहीं होती। उनके जन्म स्थान, जन्म संवत एवं रचनाओं के बारे में पर्याप्त विवाद है। ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास का जन्म विक्रम संवत 1589 (1532 ई.) में हुआ तथा उनकी मृत्यु विक्रम संवत 1680 (1623 ई.) में हुई।

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तुलसीदास के जन्म स्थान के संबंध में भी पर्याप्त विवाद है। पंडित गौरीशंकर द्विवेदी और पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने एटा जिले के अंतर्गत सोरों नामक स्थान को तुलसी जी का जन्म स्थान माना है। जबकि पंडित रामगुलाब द्विवेदी का मत है कि तुलसी जी का जन्म स्थान बांदा जिले का राजापुर ग्राम है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी तुलसी जी को राजापुर का निवासी ही बताया है।

जनश्रुति के अनुसार तुलसीदास के पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी देवी था। तुलसीदास का विवाह दीनबंधु पाठक की सुपुत्री रत्नावली के साथ हुआ था। रत्नावली के व्यंग्य से आहत होकर इन्होंने गृह त्याग किया था। इनके दीक्षा गुरु बाबा नरहरिदास थे, जिनसे उन्होंने सूकर क्षेत्र में राम कथा सुनी थी। उसके बाद बनारस में 16-17 वर्ष तक उन्होंने शेष सनातन की पाठशाला में अध्ययन किया और विविध शास्त्रों की जानकारी प्राप्त की।

रचनाएँ

तुलसीदास की प्रामाणिक रचनाओं के विषय में भी विद्वान एकमत नहीं हैं। शिवसिंह सरोज में तुलसी की 19 रचनाओं का उल्लेख है तो जॉर्ज ग्रियर्सन ने 12 रचनाओं को ही तुलसी की प्रमाणिक रचनाएं स्वीकार किए है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी जॉर्ज ग्रियर्सन के मत को प्रमाणिक मानकर तुलसी की 12 रचनाएं ही प्रमाणित मानी है। ये रचनाएं इस प्रकार हैं:— रामचरितमानस, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, दोहावली, गीतावली, कृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका, बरवै रामायण, कवितावली, वैराग्य संदीपनी, रामाज्ञा प्रश्न और रामलला नहछू इत्यादि।
तुलसीदास द्वारा रचित तुलसी सतसई को विद्वानों ने अर्द्धप्रामाणिक रचना स्वीकार किया है। इन ग्रंथों के अतिरिक्त तुलसीदास के नाम पर जो अन्य ग्रंथ प्रचलित हैं। वे सब अप्रामाणिक रचनाएं हैं।

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रामचरितमानस की प्रबंध कल्पना

तुलसीदास हिंदी के ऐसे कवि हैं जिन्होंने प्रबंध काव्य एवं मुक्तक काव्य ग्रंथों की रचना की और दोनों ही काव्यों में विशेषज्ञता प्राप्त कवि के रूप में सराहना हासिल की। मुक्तक काव्य में जहाँ छंदों में पूर्वापर संबंध का अभाव होता है और प्रत्येक छंद अर्थ की दृष्टि से स्वतंत्र होता है, वही प्रबंध काव्य में एक सानुबंध कथा होती है। संपूर्ण घटनाक्रम कार्य कारण संबंध से परस्पर पूर्वापर संबंध निर्वाह करते हुए जुड़ा रहता है। तुलसीदास ने रामचरितमानस के रूप में एक उच्च कोटि का प्रबंधकाव्य लिखा जिसमें संपूर्ण राम कथा का नियोजन है तो दूसरी ओर विनयपत्रिका, गीतावली, दोहावली जैसे उत्कृष्ट मुक्तक काव्य भी उन्होंने रचे हैं। तुलसीदास ने रामकथा का मूल आधार वाल्मीकि रामायण को बनाया है, तथापि उसमें अध्यात्म रामायण एवं अन्य तत्संबंधी ग्रंथों का भी सार निहित है।

सामाजिक एवं पारिवारिक आदर्श

तुलसीदास ने अपनी काव्य रचना का मुख्य उद्देश्य लोकमंगल व्यवहार को मानते है। यह तभी सम्भव हो सकता है, जब समाज एवं परिवार में नैतिक मूल्यों की स्थापना हो सके तथा उदात्त जीवन मूल्यों पर सबका ध्यान केंद्रित हो। रामचरितमानस में तुलसी की दृष्टि राम कथा के माध्यम से आदर्श जीवन मूल्यों की स्थापना करने की ओर केंद्रित रही है। यही कारण है कि उसमें जीवन के विविध प्रसंगों का उल्लेख है और जीवन के किसी भी पक्ष की उपेक्षा नहीं हो सकी है। तुलसी एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे, जो समाज एवं परिवार में नैतिक मूल्यों की पक्षधर हो। इसे व्यवस्थित रूप में तभी सामने लाया जा सकता था, जब परिवार एवं समाज का एक आदर्श रूप हमारे सामने उपस्थित हो। वे एक ऐसे समाज की परिकल्पना कर रहे थे जहाँ सभी सुखी हो, संपन्न हो और सभी निरोग हो।

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तुलसी की काव्य दृष्टि

तुलसीदास हिंदी के महान कवि हैं। उनकी रचनाओं में काव्य दर्शन संबंधी अनेक उक्तियां यत्र-तत्र बिखरी हुई है जिनके आधार पर उनके काव्य संबंधी दृष्टिकोण का पता चलता है। तुलसी ने काव्य तत्वों के अंतर्गत शब्द, अर्थ, अलंकार, छंद, प्रबंध कौशल, भाव, रस, गुण, दोष, ध्वनि रीति आदि का उल्लेख किया है। उन्होंने काव्य प्रयोजन के अंतर्गत दो बातें कही है। एक तो यह कि कविता स्वान्तः सुख के लिए लिखी जाती है और दूसरी यह कि काव्य गंगा के समान सबके लिए हितकारी होना चाहिए। अर्थात कविता का मुख्य उद्देश्य तुलसी लोकमंगल का विधान करना मानते हैं। तुलसी ने ध्वनि का रस से, अलंकार का रस से, वक्रोक्ति तथा रीति का रस से घनिष्ठ संबंध स्थापित कर अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया है।

तुलसी की कविता का मूल स्रोत उनका मानव प्रेम है। वे काव्य को निरुद्देश्य एवं मनोरंजन की वस्तु नहीं मानते। वे काव्य का प्रयोजन लोकहित मानते हैं। इस प्रकार तुलसी के काव्य में अनुभूति पक्ष एवं अभिव्यक्ति पक्ष का सुंदर समन्वय है। उनके काव्य दर्शन का मूल आधार लोक कल्याण है। उनकी काव्य दृष्टि सत्यं शिवं और सुंदरं का समन्वय करती है। वे सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय काव्य की रचना को ही प्रमुखता देते हैं।

उपसंहार

तुलसीदास अपने समय के महान समाजवादी थे। उन्होंने जीवन और जगत के हर क्षेत्र में समन्वय करते हुए सबको साथ लेकर चलने का स्तुल्य प्रयास किया। खंडन-मंडन की प्रवृत्ति से परे रहकर, अखंडता को नकारकर तुलसी ने समन्वयवादी दृष्टि का परिचय दिया तथा समाज में व्याप्त कटुता, विषमता, द्वेष, वैमनस्य को दूर कर पारस्परिक स्नेह, सहानुभूति, सौहार्द, समता का वातावरण बनाया। वे सच्चे अर्थों में महान समाज सुधारक, समन्वयकर्ता एवं लोकनायक थे।

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