प्रकृति सौंदर्य पर निबंध | Prakriti Soundarya par nibandh

Prakriti Soundarya par nibandh

भूमिका

जीवन और संसार का मूल आधार प्रकृति अपने – आप में नित्य , शाश्वत और चिर सुन्दर तत्त्व है । सभी जानते हैं कि विश्व की रचना जिन तत्त्वों से हुई है , वे सभी प्रकृति के अंग हैं । स्वयं प्रकृति महाकलाकार ईश्वर की रचना है । इसी कारण प्राकृतिक सौन्दर्य के रूप में उस महान शिल्पी का शिल्प देखते ही हृदय आनन्द से परिपूरित हो जाता है । प्रकृति का सौन्दर्य वाणी या लेखनी से अवर्णनीय है । वास्तव में वह हृदय से अनुभव करने वाली वस्तु है।

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प्रकृति के अंग

सारा विश्व प्रकृतिमय और प्रकृति की ही देन है । द्वीप महाद्वीप , नदी – नाले , पर्वत , समुद्र , रेगिस्तान और वन आदि प्रकृति के ही अंग हैं । सागर में तरह तरह के पेड़ , सीपियाँ , उनसे निकलने वाले मोती , नानाविध मछलियाँ तथा अन्य जलजीव मन को मुग्ध करते हैं । वनों में पेड़ – पौधे , बेलें , वनस्पतियाँ , पत्ते , फल – फूल तथा हरियाली हमारे हदय को आनन्दित करती है । हिम से आच्छादित पर्वत की चोटियों पर जब सूर्योदयकालीन धूप तथा सूर्यास्तकालीन लालिमा पड़ती है , तो चित्त प्रसन्नता से गदगद हो जाता है । नीले – सूने आकाश पर सहसा बादलों का घिर – घिर आना , रिमझिम रिमझिम बरसना और सारे वातावरण को जलमय कर देना कितना मनोहर लगता है :-

” टप – टप कण – कण बरसत नवधन , प्रभु – रति अतिशय उमड़त जन मन । “
और जब मूसलाधार वर्षा होने लगती है , मेघ घोर गर्जन करने लगता है , तब कवि हृदय कूक उठता है :-

” गरज – गरजकर बरस बरस घनघोर , राग अमर अम्बर में भर निज रोर । “
पल – भर में बादलरूपी पर्दा चीरकर भगवान सूर्यदेव दृष्टिगोचर होते हैं , तब सतरंगा इन्द्रधनुष हमारा मन मुग्ध कर लेता है । नदी – नालों में बाढ़ आ जाती है । स्रोत एवं झरने झरझर स्वर करते वेग से प्रवाहित होकर प्रकृति का अमर और मधुर गीत बन जाते हैं ।

ऋतुओं की विशेषता

प्रकृति का नाना ऋतुओं के रूप में आना और संसार की वस्तुओं में नित नवीन परिवर्तन करना हमारे लिए विविध सुन्दर दृश्यों को उपस्थित तो करता ही है , अनेकविध सुन्दर कल्पनाओं को जगाकर जीवन को सुन्दर बनाने की प्रेरणा भी देता है । बसंत के रंग – बिरंगे पुष्पों का विकास , कोयल की कुहू कुहू , और सरसों का पीत – पुष्पों के रूप में मधुर हास सृष्टिकर्ता का हास बनकर हमें मोहित कर लेता है । ग्रीष्म के सूर्य की तपती किरणें , और भयंकर लू जैसी धरती की तपन कहने को तो हमें कष्ट देती हैं ; परन्तु अन्न – फल आदि को पकाने का काम करके हमारा जो इतना भला करती हैं , उसे भला कैसे भुलाया जा सकता है !

फसल से लदे खेतों तथा फलों से आच्छादित वृक्षों को देखकर किसके मन में आनन्द की लहरें नहीं उठतीं ? ग्रीष्म के दिन यदि तपा देते हैं , तो चाँदनी रातें हृदय को खिला देती हैं । ग्रीष्म के उपरान्त वर्षा आने पर घन – घटाएँ घिर आती हैं । बिजली चमकती है , बादल गरजते हैं , शीतल पवन के झोंके विभोर कर देते हैं । चारों ओर हरियाली का विस्तार हो जाता है , जिसे देख मन – मयूर नाच उठता है । वर्षा के उपरान्त सुहावने गुलाबी उल्लास वाली शरद – ऋतु आती है । वनों में कास के सफेद फूलों के गुच्छे झूलने लगते हैं । तब कवि का हृदय चहक उठता है-

” अहो यह शरद शंभु बन आई । कास फूल – फूले चहुँ दिसि तें सोइ मनु भस्म रमाई । “

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चाँदनी रात का मनोहर दृश्य

शरद की चाँदनी के क्या कहने ! शरद पूर्णिमा की चाँदनी तो सबसे अधिक मनोहर मानी जाती है । नदियाँ निर्मल जल के प्रवाह से भर मन्द गति से जैसे गुनगुनाती हुई बहने लगती हैं । श्वेत पुष्प खिलकर सारे वातावरण को प्रोज्ज्वल – प्रमुदित कर देते हैं । फिर एक परिवर्तन होता है – हेमन्त ऋतु आती है । शरीर को कैंपा देने वाली शीतल पवन चलती है । रात को ओस पड़ती है । कमलों की पंखुड़ियों पर पड़ी ओस की बूंदों पर जब प्रभातकाल में सूर्य की किरणें पड़ती हैं , तो ओस की बूंदें मोती की भाँति चमक कर मन मोह लेती हैं । किरण का रंग – रूप देखकर विस्मय मुग्ध कवि का स्वर गूंज उठता है

” किरण ! तुम क्यों बिखरी हो आज ,

रंगी हो तुम किसके अनुराग ?

स्वर्ण – सरसिज किंजल्क समान

उड़ाती हो परमाणु – पराग । “

शीत ऋतु

हेमन्त के बाद शिशिर ऋतु आती है । ठण्डी हवाएँ हड़कम्प मचाने लगती हैं । शीत और भी बढ़ जाता है । पेड़ों से पत्ते झड़ने लगते हैं । वन – उपवन में , तरुलताओं पर पीलापन छा जाता है । इसी कारण इस ऋतु को पतझड़ भी कहते हैं । पत्ते आना , फिर झड़ जाना , अद्भुत दृश्य मानव – जीवन में निरन्तर चल रहे परिवर्तन – चक्र का आभास करा कर , एक नयी चेतना जगा जाता है । शिशिर के बाद पुन : वसन्त आता है ऋतुराज वसन्त ! इस प्रकार प्रकृति का यह क्रम निरन्तर चलता रहता है ।

पर्वतों पर इस प्रकृति – सौंदर्य के पल – पल परिवर्तित होते रूप को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है । धरती के स्वर्ग कश्मीर के प्रकृति – सौन्दर्य को देखकर कवि के मधुर उद्गार इस प्रकार प्रकट हुए – –


“ प्रकृति इहाँ एकान्त बैठि निज रूप सँवारति ।
पल – पल पलटति भेस छिनक छिन – छिन छवि धारति ।
विमल – अम्बु – सर – मुकुरन महँ मुख – बिम्ब निहारति ।
अपनी छबि पै मोहि आप ही तन – मन वारति ॥ “

इस प्रकार प्रकृति का यह निरन्तर गतिशील क्रम जीवन की गतिशीलता का भी संदेश दे जाता है ।

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