सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला पर निबंध |Suryakant Tripathi Nirala nibandh

Suryakant Tripathi Nirala par nibandh

भूमिका

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिन्दी के युगान्तरकारी कवि थे तथा छायावादी कवि चतुष्टय में उनका महत्वपूर्ण स्थान था। उनकी कविता में नवजागरण का सन्देश एवं प्रगतिशील चेतना और राष्ट्रीयता का स्वर विद्यमान था। मानव की पीड़ा ,परतंत्रता के प्रति तीव्र आक्रोश उनकी कविओं में देखने को मिलता है। साथ ही अन्याय एवं असमानता के प्रति विद्रोह की भावना उनमें सर्वत्र व्याप्त है ।

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जीवन परिचय

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म 21 फरवरी 1897 को बंगाल के मेदिनीपुर में हुआ था। निराला का जीवन दुर्भाग्य और त्रासदियों से भरा हुआ था। उनके पिता, पंडित रामसहाय त्रिपाठी, एक सरकारी कर्मचारी थे। जब वह बहुत छोटे थे तभी उनकी माँ का देहांत हो गया था। निराला की शिक्षा बंगाली माध्यम में महिषादल, पूरबा मेदिनीपुर में हुई थी। फिर मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद घर पर ही संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य पढ़कर अपनी पढ़ाई जारी रखी। इसके बाद, वे लखनऊ चले गए और वहाँ से अपने पिता के पैतृक गाँव उन्नाव जिले के गढ़कोला में रहने लगे। जब वे बड़े हुए, तो उन्होंने रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महान व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों से प्रेरणा ग्रहण की।

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निराला की शादी मनोहरा देवी के साथ हुई। फिर अपनी पत्नी के आग्रह पर हिंदी सीखी और बंगाली के बजाय हिंदी में कविताएँ लिखना शुरू कर दिया। निराला ने अपनी पत्नी के साथ कुछ अच्छे वर्ष बिताए। लेकिन यह समय अल्पकालिक था क्योंकि 20 वर्ष की उम्र में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई, और बाद में उनकी बेटी सरोज की भी मृत्यु हो गई। जिससे वे पूरी तरह से टूट गए। इस दौरान उन्हें आर्थिक तंगी का भी सामना करना पड़ा। इस दौरान निराला ने कई प्रकाशकों के लिए कार्य किया और एक प्रूफ-रीडर के रूप में भी कार्य किया। निराला की मृत्यु 15 अक्टूबर 1962 को इलाहाबाद में हुई थी।

प्रमुख रचनाएँ

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कुछ प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं:-
काव्य

अनामिका (1923)
परिमल (1930)
गीतिका (1936)
तुलसीदास (1939)
कुकुरमुत्ता (1942)
अणिमा (1943)
बेला (1946)
नये पत्ते (1946)
अर्चना(1950)
आराधना (1953)
गीत कुंज (1954)

उपन्यास

अप्सरा (1931)
अलका (1933)
प्रभावती (1936)
निरुपमा (1936)
कुल्ली भाट (1938-39)
बिल्लेसुर बकरिहा (1942)
चोटी की पकड़ (1946)
काले कारनामे (1950)
इन्दुलेखा (अपूर्ण)

कहानी संग्रह

लिली (1934)
सखी (1935)
सुकुल की बीवी (1941)
चतुरी चमार (1945)

निराला की काव्य विशेषता

निराला कालक्रम की दृष्टि से भले ही छायावादी कवि माने जाते हैं , किंतु वे काव्य की विषय-वस्तु की दृष्टि से छायावादी होने के साथ-साथ प्रगतिवादी एवं प्रयोगवादी भी हैं। भले ही वे अज्ञेय द्वारा 1943 में ‘तार सप्तक’ से प्रवर्तित ‘प्रयोगवाद’ की पारिभाषिक सीमा में न आते हो तथापि उनका काव्य प्रयोगधर्मी काव्य है। उन्होंने भाषा, छंद विधान, बिम्ब विधान, संगीतात्मकता आदि दृष्टि से अपने कार्य में अनेक प्रयोग किए।

जिस छंद का प्रयोग प्रयोगवाद में प्रचुरता से हुआ उसके प्रथम प्रयोक्ता निराला जी ही थे। कविता को छंद के बंधन से मुक्त कर निराला ने सममात्रिक , विषय मात्रिक , अन्त्यानुप्रास वाली कविताएं लिखी। उनकी ” भिक्षुक “कविता विषम मात्रिक अन्त्यानुप्रास वाली कविता है जिसमें छंद के नियम का पालन नहीं हुआ है। जैसे:—

वह आता—
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता ।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक
चल रहा लकुटिया टेक
मुट्ठी भर दाने को
भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता ।

निराला की अधिकांश कविताएं मुक्त छन्द में लिखी गई हैं । ये कविताएं उन्मुक्त नदी की भांति कहीं तीव्र तो कहीं मन्द गति से आगे बढ़ती हैं । ‘ जुही की कली ‘ ऐसी ही कविता है । निराला की मुक्त छन्द वाली कविताओं का मुखर विरोध आलोचकों ने किया , किन्तु उन्होंने इस बात की रंचमात्र परवाह न की और अपने निर्धारित पथ पर चलते रहे । छन्द के बन्धन से कविता को मुक्त कर निराला ने युगान्तरकारी परिवर्तन किया ।

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निराला के प्रगीत

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी के प्रयोगधर्मी कवि थे। उन्होंने एक ओर तो मुक्त छंद में काव्य रचना की, तो दूसरी और प्रगीत काव्य की रचना कर अपनी भावात्मक तरलता एवं संगीत ज्ञान का सुंदर परिचय दिया। निराला के गीत काव्य में वैयक्तिकता का तत्व भी विद्यमान है। ‘ सरोज स्मृति ‘नामक शोक गीत उन्होंने अपनी पुत्री सरोज की असामयिक मृत्यु पर लिखा था। निराला की गीत योजना में संगीतात्मकता का तत्व भी उपलब्ध होता है। उन्हें संगीत की अच्छी जानकारी थी। उनके गीतों में मधुर संगीत की सृष्टि हुई है। निराला के गीतों में संक्षिप्तता का तत्व भी विद्यमान है। इस प्रकार वे हिंदी के प्रमुख गीतकारों में अपना स्थान रखते हैं।

निराला की प्रगति चेतना

निराला की प्रगतिशीलता ने निश्चय ही समाज , मानव , राजनीति , धर्म , पूंजीवाद को अपना विषय बनाया और अपनी कविता में प्रगतिशील दृष्टिकोण को अभिव्यक्ति दी । निराला की मान्यता है कि आज पैसे पर धर्म पनपता है , प्रेम पल्लवित होता है और कविता पुष्पित होती है । इस प्रवृत्ति पर उन्होंने करारा व्यंग्य किया है । निराला मानववादी कवि हैं तथा शोषण का विरोध हर स्तर पर करते हैं । वे नारी उत्थान के समर्थक हैं , रूढ़ियों के भंजक हैं एवं शोषितों के प्रति सहानुभूतिशील हैं ।

सामाजिक विषमता को दूर करने के पक्षधर निराला पूंजीपतियों के विरोधी हैं । ‘ बेला ‘ , ‘ अणिमा ‘ , ‘ गीत गुंज ‘ की कविताएं प्रगतिशील चेतना से युक्त हैं । वस्तुतः निराला के काव्य का मूल स्वर लोक कल्याण है । ‘ नये पत्ते ‘ एवं ‘ कुकुरमुत्ता ‘ में उनकी प्रगतिशील चेतना प्रमुख रूप से मुखरित हुई है ।

उपसंहार

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि निराला विचारों से क्रान्तिकारी एवं दीन – दुखियों के समर्थक कवि थे। शोषकों , साम्राज्यवादियों एवं पूंजीपतियों के प्रति उनके मन में बहुत आक्रोश था। वे शोषण के विरोधी थे। राष्ट्रभक्ति , स्वातन्त्र्य चेतना एवं आत्मगौरव के भाव उनमें व्याप्त थे। निर्विवाद रूप से यह माना जा सकता है कि निराला ने युग चेतना के अनुरूप ही अपनी सामाजिक – सांस्कृतिक दृष्टि विकसित की।

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