वर्षा ऋतु पर निबंध | Varsha Ritu par nibandh

Varsha Ritu par nibandh

भूमिका

ऋतु का सामान्य अर्थ है – मौसम । हमारे भारतवर्ष की छः ऋतुओं या मौसमों के चक्र में वर्षा ऋतु का अपना ही अलग महत्त्व है । सागर के किनारे बसे हुए नगरों को बरसातें , बस कुछ न पूछिए ! आप घर से निकले तो आकाश साफ था । इधर खिली हुई धूप में आप गुनगुनाते हुए चले जा रहे हैं कि न जाने कहाँ से सावन की एक बदरी उठ आई , इस फुर्ती से आकाश पर छा गयी और इस तेज़ी से छमाछम बूंदें गिरने लगी कि आप लाख यत्न करें सूखे बच निकलने का , पर वह आपको भिगोकर ही छोड़ेगी । दस – पाँच पग ही आगे बढ़े होंगे कि वह बदरी न जाने कहाँ छिप गयी और तेज़ धूप फिर से चटखने लगी। सचमुच बड़ी चंचल होती है समुद्र – तट के आस – पास बसी बस्तियों की वर्षा – ऋतु ।

Varsha Ritu par nibandh

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ऋतु का आगमन

इसके विपरीत ठेठ मैदानी प्रदेशों में वर्षा – ऋतु इठलाती , ढोल बजाती हुई आती है । एक दिन सहसा देखा कि सायंकाल से ही आकाश का रंग कुछ दूसरा पहले तो धीमी – धीमी पुरवैया चली , फिर काले – काले बादलों ने आकाश को घेर लिया । आपने सुना कहीं बादल गरज रहा है । आकाश की ओर देखा तो विद्युत की एक हल्की – सी रेखा चमककर आकाश के इस पार से उस पार निकल गयी । वर्षा होगी क्या ? उत्तर में आप के माथे पर एक ठण्डी बूँद गिरी ।

मन हर्ष से उछल पड़ा – अहा ! अब पानी बरसेगा और खूब बरसेगा । और तभी सचमुच बूँदें गिरने लगीं । वर्षा होने लगी । बरसात की यह पहली बौछार है न ! सूखी धरती पर बूंदें गिरते ही मिट्टी महकने लगी । बालक किलकारियाँ मारते हुए बाहर निकल आये । किसान की दृष्टि में नयी चमक आ गयी और नयी आशाएँ अँगड़ाइयाँ लेने लगीं ।

गुप्त जी के कथनों में

कवि का हृदय भावुक हो मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में गा उठा —

“ सफल है उन्हीं घनों का घोष ।
वंश – वंश को देते हैं जो वृद्धि विभव संतोष ।
नभ में आप विचरते हैं जो
हरा धरा को करते हैं जो
अक्षय उनका कोष ।
सफल है उन्हीं घनों का घोष । ”

मानो घटाओं ने कवि की भाषा समझ ली । काले – काले बादलों ने आकाश घेर लिया और यह रिमझिम – रिमझिम धारासार बरसने लगा । फिर बूदें शनै शनैः तीव्र होती गयीं । फिर कौंधा लपका और हवाएँ चक्कर काटने लगीं – मानो पानी और हवा में होड़ – सी ठन गयी हो । वायु की क्रुद्ध लहरियाँ हू – हू करती आयीं और मकानों की छतों और दीवारो को धमकाती हुई लौट गयीं । पानी की तेज़ फुहारें आयीं और धरती के कण – कण को भिगोती हुई आगे बढ़ गयीं । अपने पीछे पानी – ही – पानी छोड़ गयीं । उससे जन्म होने लगा हरियाली का ।

सावन के झोंके

तनिक उधर देखो । एक ग्वाले की झोंपड़ी की छत उड़कर दूर जा गिरी । चारों ओर पानी ठाठे मार रहा है । काले – मटमैले पानी में कहीं लकड़ियाँ तैर रही हैं , कहीं कागज़ की नावें । पानी सड़क तक चढ़ आया है । पार उतरने वालों का तमाशा देखो । धोती कमर तक चढ़ाई हुई है और जूते हाथ में उठा लिये हैं । उधर देखो , वह फिसला धड़ाम । अरे हँसो मत ! यह सावन की ठिठोली है ! चलो हम भी अमराइयों के झुरमुट में डालों पर झूले डालें । हिंडोले पर पेंग लगायें और गाएँ । धरती को नया जीवन देने वाली वर्षा -ऋतु का स्वागत करें ।

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ऋतु की विशेषता

इस प्रकार हमारे सतरंगे देश में श्रावण और भाद्रपद तक वर्षा अपना चमत्कार दिखाती है । किन्हीं प्रदेशों में चौमासा भी लगता है । ग्रीष्म – ऋतु में जो तालाब और नदियाँ सूखकर सँकरी हो गयी थीं , वे फिर जल से भर – भर जाती हैं । जो पशु गर्मी के मारे हाँफ – हाँफकर रह जाते थे , अब वे फूले नहीं समाते । किसान के हर्ष का ठिकाना नहीं रहता । वह अपने हल – बैलों को लेकर सावन के गीत गाता हुआ खेतों की ओर चल देता है । झिल्लियों की झंकार और मेढ़कों की टर्र – टर्र से वातावरण गूँज उठता है । वनों में नाचते मोरों की धमाल और कोयल की कुहुक मन मोह लेती है ।

वर्षा से आम और जामुन में शरबत – सा घुल जाता है । घास और खेत – बगीचों की हरियाली से चारों ओर धरती शस्य – श्यामला बन जाती है । उसे देख आँखें तर होकर चमक उठती हैं ! पर्वतों पर बादल ऐसे दिखाई देते हैं , जैसे धुएँ का मेला लग गया हो । पर्वत की ऊँचाइयों पर बसे नगरों – ग्रामों में तो बादल घर , आँगन तक में घुस आते हैं । दिन को भी सूर्य दिखाई नहीं देता और हाथ को हाथ नहीं सूझता । फिर भी जी चाहता है कि घरों में घुस आये बादलों को पकड़ कर निचोड़ लें ।

वर्षा का दुखद पहलू

यों तो वर्षा उल्लास और आनन्द की ऋतु है , किन्तु इसका एक दुखद पहलू भी है । जब बाढ़ आती है और गाँव के गाँव बह जाते हैं , जब साँप और बिच्छू घर – बाहर में फैल जाते हैं , जब मच्छर और मक्खियाँ उत्पन्न होकर मलेरिया और हैजा फैलाते हैं , तो एक बार शरीर काँप उठता है । तब हमें वाल्मीकि , कालिदास और सुमित्रानन्दन पन्त की वर्षा ऋतु विषयक सब कविताएँ भूल जाती हैं , केवल तुलसीदास जी की ये पंक्तियाँ स्मरण हो आती हैं—-

“ कबहुँ दिवस मँह निबिड तम कबहुँ प्रगट पतंग ।
उपजै बिनसै ज्ञान जिमि पाइ सुसंग कुसंग ॥ “

उपसंहार

जो हो , वर्षा – ऋतु क्योंकि धरती को नया रूप – रंग , नया साज – श्रृंगार देती है , अतः वह अच्छी ही लगती है । वह इस धरती के लिए प्रकृति का सजल और हरियाला वरदान है । धरती का श्रृंगार और जीवन का सजल संगीत भी है । इस संगीत के गूँजने से ही धरती का श्रृंगार सज सकता है अन्यथा नहीं ।

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