कवि भूषण पर निबंध | Kavi Bhushan par nibandh

Kavi Bhushan par nibandh

भूमिका

भूषण छत्रपति शिवाजी और पन्ना के राजा छत्रसाल बुंदेला के आश्रय में रहने वाले ऐसे रीतिकालीन कवियों में से एक हैं जिन्होंने वीर रस की कविताएं लिखकर अपूर्व ख्याति अर्जित की। चित्रकूट के राजा रूद्रसाह सोलंकी ने इन्हें “भूषण” की उपाधि दी थी और वह इस नाम से इतने प्रसिद्ध हुए कि इनका वास्तविक नाम ही किसी को नहीं पता। भूषण के विषय में कहा जाता है कि इनकी पालकी में स्वयं महाराज छत्रसाल ने अपना कंधा लगाया था।

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जीवन परिचय

भूषण का जन्म 1613 ई. में कानपुर जिले के घाटमपुर तहसील के टिकवाँपुर गाँव में हुआ था। भूषण कश्यप गोत्रीय , कान्यकुब्ज, त्रिपाठी ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम रत्नाकर त्रिपाठी था । रत्नाकर त्रिपाठी के चार पुत्र चिन्तामणि , भूषण, मतिराम और जटाशंकर थे । चिन्तामणि और मतिराम रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि थे।

भूषण कई राजाओं के यहाँ रहे। आश्रयदाता की खोज के संबंध में यह किवंदती प्रसिद्ध है कि विवाहित होने पर भी भूषण केवल घर में बैठे-बैठे खाया करते थे तथा उनके बड़े भाई चिन्तामणि शाहजहाँ के दरबार से अर्थार्जन कर पूरे परिवार का पालन-पोषण करते थे। एक दिन खाने में नमक कम होने पर भूषण ने अपनी भाभी से नमक माँगा। इसपर भाभी ने ताना मारते हुए कहा कि तुमने जो ढेर सारा नमक कमा कर रखा है, वो लाए देती हूँ । भूषण को यह बात दिल से लग गई और वह नमक ( अर्थ ) की खोज में निकल पड़े। आश्रयदाता की खोज में वे सबसे पहले चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्रशाह के दरबार में गए और वहाँ से ‘कविभूषण’ की उपाधि पाने के पश्चात् आगरा होते हुए शिवाजी के दरबार में पहुँचे। भूषण की मृत्यु 1715 ई. में हुई।

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रचनाएँ

शिवराज भूषण , शिवा बावनी और छत्रसाल दशक भूषण की प्रसिद्ध रचनाएं हैं। भूषण ने शिवराज भूषण और शिवा बावनी की रचना महाराज शिवाजी के आश्रम में रहकर की। इनमें से शिवराज भूषण अलंकार ग्रंथ है, जिसमें 105 अलंकारों के लक्षण और उदाहरण दिए गए हैं। अलंकारों के लक्षण दोहों में तथा उदाहरण कवित्त और सवैयों में है। छत्रसाल दशक में महाराज छत्रसाल की वीरता का वर्णन है तो शिवा बावनी में शिवाजी का बखान किया गया है।

भूषण की काव्य भाषा

कवि भूषण के युग में हिंदी काव्य के लिए ब्रजभाषा का प्रयोग किया जाता था। ब्रजभाषा न केवल कोमल, सुकुमार और भावना प्रधान थी, अपितु वह कोमल भावों की व्यंजना के लिए भी अधिक उपयुक्त थी । रीतिकालीन कवियों ने तो राजभाषा को श्रृंगारिक भावों की अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त मान लिया , किन्तु भूषण ने उसे अपने भावों के अनुसार ढाला और सुकुमार ब्रजभाषा को परुष , कठोर और ओजस्वी बना दिया । इस प्रकार ब्रजभाषा भूषण के भावों के अनुसार बदल गई।

भाषा को अपने अनुकूल ढालने के प्रयत्न में शब्दों की तोड़ – मरोड़ भी बहुत की जिससे उसका स्वरूप कहीं – कहीं दोषपूर्ण हो गया है । सामान्यतः वीररस के अनुकूल वही भाषा हो सकती जिसमें ओजगुण – व्यंजक वर्गों की प्रधानता हो । भूषण की भाषा में यह गुण उनके प्रयत्न से आ गया है । जहाँ तक भूषण के द्वारा प्रयुक्त शब्दावली का प्रश्न है , उसमें तद्भव , तत्सम शब्दों के अतिरिक्त अरबी – फारसी शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग हुआ है ।

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अन्य प्रयोग

एक ओर यदि उसमें कदली , कपोत , मकरन्द , चातक , माधवी , चक्रवात , रसाल , सुमन , ईस , उपेन्द्र , मृगराज जैसे तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है तो प्रान , अरथ और सुबरन जैसे तद्भव शब्दों का प्रयोग भी किया गया है । भूषण ने बड़ी कुशलता से अरबी – फारसी के शब्दों का प्रयोग भी अपनी कविता में किया है किन्तु उन्हें ब्रजभाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल दिया है । इतना ही नहीं , भूषण की भाषा पर मराठी का भी प्रभाव है , और भूषण ने महाराष्ट्र में रहने के कारण कितने ही ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो मराठी भाषा में प्रचलित थे , जैसे – पैज , माची , मसीत , मौज , दंगली , बेदर , उसलत , हटक्यो , जासती आदि रूप मराठी प्रवृत्ति के द्योतक हैं । भूषण ने अपने काव्य में मुहावरों का भी सटीक प्रयोग किया है। भूषण की भाषा में ओजस्विता , युगानुकूलता , रसानुकूलता , लाक्षणिकता और संश्लिष्टता विद्यमान है ।

भूषण की काव्य – कला

यद्यपि भूषण एक रीति – कवि हैं किन्तु उनका वैशिष्ट्य रीतिकार के रूप में न होकर एक कवि के रूप में ही है । भूषण ने अपने काव्य में अपने आश्रयदाताओं की वीरता का गान किया है । अतएव यह स्वाभाविक ही है कि उनकी कविता वीररस प्रधान है । इनके काव्य में वीररस के चारों प्रकार युद्धवीर , दानवीर , दयावीर और धर्मवीर – के वर्णन प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं किन्तु इनमें मुख्यता युद्धवीर की ही है । युद्धवीर सम्बन्धी प्रकरणों में कवि ने चतुरंग चमू , वीरों की गर्वोक्तियों , योद्धाओं के वीरतापूर्ण कार्यों और शस्त्रों का सजीव प्रत्यंकन किया है । वीररस के साथ – साथ रौद्र , भयानक और वीभत्स रसों का समुचित परिपाक भी भूषण के काव्यों में देखने को मिलता है।

उपसंहार

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि भूषण रीतिकाल के ऐसे कवि हुए जिन्होंने रीतिकालीन श्रृंगार भावना के स्थान पर वीर रस की कविता लिखी। इनकी कविताओं में युगबोध जीवंत रूप में दिखाई पड़ती है। उनकी कविता में जनजीवन का प्रभावी चित्रांकन हुआ है। इसलिए भूषण को राष्ट्रकवि की संज्ञा भी प्रदान की गई है।

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