गजानन माधव मुक्तिबोध पर निबंध | Gajanan Madhav muktibodh Essay

Gajanan Madhav muktibodh Essay

भूमिका

गजानन माधव मुक्तिबोध की गणना हिंदी के प्रगतिवादी कवियों में की जाती है क्योंकि वह सर्वहारा वर्ग की पीड़ा को अभिव्यक्ति देने वाले कवि थे। उनकी प्रगतिवादी दृष्टि परिवेश बोध , सामाजिक चिंतन और अनुभव वैविध्य पर आधारित दिखाई पड़ती है। इनकी सबसे बड़ी शक्ति समाज बोध और जनजीवन में विश्वास था। उन्होंने जीवन प्रयत्न जो आत्म संघर्ष किया उसने उनके जीवन को भीतर तक गहरे रूप में प्रभावित किया। मुक्तिबोध जनसाधारण के कवि थे। दीन-हीन शोषित सर्वहारा के प्रति उन्हें सच्ची सहानुभूति थी।

Gajanan Madhav muktibodh Essay

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जीवन परिचय

मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर 1917 ई. में श्योपुर जिला मुरैना, मध्यप्रदेश में हुआ था। इनके पिता का नाम माधवराव था , जो एक इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे। माता का नाम पार्वती बाई था। इनकी माँ एक घरेलू और धर्म परायण महिला थी। मुक्तिबोध अपने माता-पिता के तीसरी संतान थे। उनसे पहले के दोनों बच्चे जीवित नहीं रह सके थे। इस कारण मुक्तिबोध के लालन-पालन और देख-भाल पर अधिक ध्यान दिया गया। उन्हें खूब प्यार और स्नेह मिला। सात-आठ साल की उम्र तक उन्हें अर्दली ही कपड़े पहनाते थे। उनकी हर आवश्कताओं का विशेष ध्यान रखा जाता था। उनकी हर माँग पूरी की जाती थी। घरवाले उन्हें ‘बाबूसाहब’ कहकर पुकारते थे। वे परीक्षा में सफल होते तो घर में उत्सव मनाया जाता था। इस अतिरिक्त लाड़-प्यार और राजसी ठाट-बाट में पला बालक हठी और जिद्दी हो गया। इनकी मृत्यु 11 सितंबर 1964 ई. में हुई।

शिक्षा

मुक्तिबोध के पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे। अक्सर उनका तबादला होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी। 1930 ई. में मुक्तिबोध ने मिडिल की परीक्षा, उज्जैन से दी और फेल हो गए। कवि ने इस असफलता को अपने जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में स्वीकार किया है। मुक्तिबोध ने 1938 ई. में बीए की परीक्षा पास की। 1954 ई. में उन्होंने एम.ए. की परीक्षा पास कर दिग्विजय कॉलेज में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए और 1939 में इन्होंने शांता जी से प्रेम विवाह किया। 1942 के आस-पास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके तथा शुजालपुर में रहते हुए उनकी वामपंथी चेतना मजबूत हुई। उन्होंने 1953 में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ किया। मुक्तिबोध अस्तित्ववादी विचारधारा के समर्थक थे।

साहित्यिक परिचय

गजानन माधव मुक्तिबोध “तारसप्तक” के प्रथम कवि थे। उनकी कविता पहली बार ‘तार सप्तक’ के माध्यम से ही सामने आई थी, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया। उनकी 17 कविताएँ अज्ञेय द्वारा संपादित तार सप्तक में संकलित है। मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल “एक साहित्यिक की डायरी” प्रकाशि‍त की थी, जिसका द्वितीय संस्करण उनकी मृत्यु के दो महीने बाद भारतीय ज्ञानपीठ के माध्यम से प्रकाशि‍त हुआ। ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ का प्रकाशन भी ज्ञानपीठ ने ही किया था। इसमें 28 कविताएँ संकलित हैं। इसी वर्ष नवंबर 1964 में नागपुर के विश्‍वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा 1963 में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन नयी कविता का आत्मसंघर्ष एवं अन्य निबंध’ को प्रकाशि‍त किया था। 

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मुक्तिबोध की कविता में फैंटेसी

मुक्तिबोध ने मानव जीवन की जटिल संवेदनाओं और उसके अंतर्द्वंद्वों की सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए फैंटेसियों का कलात्मक उपयोग किया है। फैंटेसी में कल्पनाओं और विचारों की परतें एक के बाद एक खुलती जाती है और कवि के मानसिक उर्वरता का सही बोध पाठकों के समक्ष उपस्थित होता है।

फैंटेसी शब्द का निर्माण यूनानी शब्द ‘फैंटेसिया’ से हुआ है जिसका अर्थ है– ”मनुष्य की वह क्षमता जो संभाव्य संसार की सर्जना करती है।” फैंटेसी वस्तुत: द्वंद्व पर आधारित होती है। कलाकार यथार्थ से असंतुष्ट होकर स्वप्न और फैंटेसी के संसार में प्रवेश करता है। मुक्तिबोध की मान्यता है कि फैंटेसी में भावात्मक उद्देश्य एवं दिशा होना आवश्यक है। फैंटेसी मानसिक प्रक्रिया होते हुए भी जब सामाजिक यथार्थ से जुड़ती है तब रचना प्रक्रिया को बदल देती है। फैंटेसी की कथा , चरित्र , कार्य सभी प्रतीकात्मक होते हैं। उनकी दो कविताएं “ब्रह्मराक्षस” एवं ”अंधेरे में ” अपनी फैंटेसी के कारण ही बहुत अधिक चर्चा में रही है।

उपसंहार

वस्तुतः जनसाधारण की जो छवि मुक्तिबोध की कविताओं में उभरकर सामने आई है। वह यह व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है कि वह गरीबों के पक्षधर रहे हैं। वेदना मुक्तिबोध की शक्ति रही है। यह उन्हें समाज से जोड़ती है। अतः मुक्तिबोध की कविताएं समसामयिक जीवन एवं परिवेश की विसंगतियों को पूर्णता अभिव्यक्ति देने में सफल कही जा सकती है।

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