आत्मनिर्भरता पर निबंध | hindi essay on self reliance

Atmanirbharta par nibandh

भूमिका

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । दूसरे शब्दों में मनुष्यों के मेल से ही समाज बनता है । जिस प्रकार चावल पक गये हैं कि नहीं , यह देखने के लिए पूरी हाण्डी को नहीं बल्कि एक दाने को देखकर जान लिया जाता है कि वे कच्चे हैं या पक्के , उसी प्रकार किसी व्यक्ति के आचरण – व्यवहार से ही पता चल जाता है , कि वह जिस समाज में रहता है , वह किस प्रकार का है । यदि व्यक्ति निठल्ले हैं , तो कहा और माना जा सकता है कि उनका समाज भी निठल्ला है । यदि व्यक्ति आत्मनिर्भर हैं , तो कह दिया जाता है कि उसका समाज भी आत्मनिर्भर ही है ! इस प्रकार आत्मनिर्भरता का महत्त्व स्पष्ट है ।

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आत्मनिर्भरता का अर्थ

आत्मनिर्भरता के लिए स्वावलम्बी शब्द का प्रयोग भी किया जाता है । ‘ आत्म ‘ शब्द का अर्थ है – अपने – आप पर ; ‘ निर्भर ‘ शब्द का अर्थ है – आश्रित होना । इस प्रकार किसी दूसरे के आश्रय पर खड़े न हो , अपने ही पाँव पर , अपने ही बलबूते पर खड़े होने को आत्मनिर्भरता कहा जाता है । स्वावलम्बन ‘ का अर्थ भी ऐसा ही है । ‘ स्व ‘ अर्थात् अपना और ‘ अवलम्बन ‘ यानि आश्रय या सहारा ! अपने सहारे या क्रिया – कलापों के सहारे जीने को स्वावलम्बन कहा जाता है । जिस प्रकार किसी भी पराधीनता को अच्छा नहीं माना जाता , उसी प्रकार दूसरों के आश्रित बनकर राजा भी अच्छा एवं उचित नहीं माना जाता ! पराधीन और परायों पर निर्भर रहने वाला दोनों का अपना व्यक्तित्व दबकर रह जाता है । दोनों की अपनी इच्छा का कोई मूल्य और महत्त्व नहीं होता ! अधीन बनाने और आश्रय देने वाले जैसे रखें , वैसा ही रहना पड़ता है ।

पराधीन और परावलम्बी दोनों के लिए सच्चे सुख , स्वाधीनता और स्वर्ग – नरक का कोई महत्त्व नहीं हुआ करता । आश्रय देने वाला जैसे रखता है , वैसा ही रहना उनकी मजबूरी हुआ करती है । वे सुख – दुख का असली स्वरूप न तो देख पाते हैं और न पहचान पाने में ही समर्थ हुआ करते हैं । इन्हीं सत्यों की तरफ इशारा करते हुए कविवर वियोगी हरि ने कहा है :
“ पराधीन जे जन , नहीं स्वर्ग – नरक ता होत । पराधीन जे जन नहीं , स्वर्ग – नरक ता होत ॥ “

अर्थात् स्वर्ग – नरक का महत्त्व उन्हीं के लिए हुआ करता है , जो स्वाधीन हैं — स्वावलम्बी है । पराधीन और पराये आश्रित के लिए स्वर्ग – नरक कोई महत्त्व नहीं होता । उसे तो अधीन बनाने या आश्रय देने वाला जिस हाल में रखता है , रहना पड़ता है ।

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आत्मनिर्भरता की पहचान

आत्मनिर्भरता या स्वावलम्बन का सामान्य अर्थ है अपने पाँव पर खड़ा होना । अर्थात् अपना जीवन अपने द्वारा किये गये परिश्रम और उससे प्राप्त होने वाले धन से व्यतीत करना । ऐसा करने वाला ही घर – परिवार और सारे समाज में आदर – मान पाया करता है । जो व्यक्ति आलसी और निकम्मा होता है , अपनी जीविका का साधन भी जुटा नहीं पाता , उसकी अपने घर – परिवार वाले भी इज्जत नहीं किया करते , फिर वह समाज से इज्जत पाने की आशा कैसे कर सकता है ? ऐसे आदमी को घर , परिवार , समाज , देश – जाति और धरती पर एक ऐसा बोझ माना जाता है कि जिसे कोई उठाना नहीं चाहता । हर कोई उतार कर एक तरफ फेंक कर किनारा कर जाना चाहता है । इसके विपरीत आत्मनिर्भर आदमी को सभी सर – आँखों पर बिठाये रखना चाहते हैं ।

समाज में सम्मान

जो आदमी खुद आत्मनिर्भर होता है , उसे अपने साथियों , अपने सारे समाज , सारे राष्ट्र को भी वैसा ही बनाने को चिन्ता रहा करती है । वह सब प्रकार की बुराइयों से भी बचा रह पाता है । बुरा सोचने – करने का उसे अवसर ही नहीं मिलता । यदि कभी कुछ समय मिलता भी है तो वह अच्छे कार्य करने में उसका सदुपयोग किया करता है । इसके विपरीत जो बेकार और खाली मन – मस्तिष्क हुआ करते हैं , वे तरह – तरह के बुराई रूपी भूतों का घर बन जाया करते हैं ।

वे बुरा सोचते और बुरा ही करते हैं । जो अपना भला नहीं कर सकता , उससे और किसी भी भलाई की आशा ही कैसे की जा सकती है ? ऐसे लोगों को कोई अपने पास तक नहीं फटकने देना चाहता । प्रायः समझदार लोग ऐसों के पास से बचकर निकल जाना ही अच्छा समझते हैं । परावलम्बी व्यक्ति कई तरह की हीनताओं का शिकार हो जाया करता है । उसकी वे हीनताएँ अपने साथ – साथ अपने रिश्तों – नातों , समाज और देश को भी ले डूबा करती हैं । इस कारण प्रयत्न करके भी आत्मनिर्भर या स्वावलम्बी बनना चाहिए ।

आत्मनिर्भर व्यक्ति के गुण

स्वावलम्बी या आत्मनिर्भर व्यक्ति का मन हमेशा आत्मविश्वास और उत्साह से भरा रहा करता है । कठिन – से – कठिन समय और बुरी – से – बुरी परिस्थिति में भी ऐसा व्यक्ति घबराया नहीं करता । उल्टे साहस और उत्साह से भरकर उन कठिनाइयों – बुराइयों का सामना किया करता है । अपने पुरुषार्थ से , दृढ़ता और लगन से उन सबको बदल कर ही दम लिया करता है । ऐसा व्यक्ति कहीं भी चला जाए , सभी जगह परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लिया करता है । कभी भूखा नहीं मरता । कभी निराश नहीं होता । दूसरों के लिए भी आदर्श और अनुकरणीय बन जाया करता है ।

आत्मनिर्भर व्यक्ति कभी भी असावधान नहीं हुआ करता । हमेशा सावधान रहकर अपने कर्तव्य – पालन में लगा रहता है । वह देश – जाति की उन्नति और विकास – कार्यों में भी उचित योगदान किया करता है । अपने समय , देश – जाति को भी आत्मनिर्भर देखना चाहता और बनाने की कोशिश किया करता है । आत्मनिर्भर आदमी ही जीवन जीने की कला जानता है । वह चाहता है कि देश – जाति भी उसी की तरह बने ।

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परिश्रम : आत्मनिर्भरता की कुंजी

आत्मनिर्भर का एकमात्र उपाय है सावधान और जागरूक रहकर निरन्तर परिश्रम करना । परिश्रम ही वह कुंजी है , जिसके द्वारा आत्मनिर्भर बनकर सारे संसार को जीता जा सकता है । जापानी लोग कहा करते थे कि एक दिन हम इन उँगलियों से
सारे संसार को जीत लेंगे । उँगलियों से जीतने से उनका तात्पर्य लगातार परिश्रम से देश – जाति को आत्मनिर्भर बनाना था । इसी के बल पर वास्तव में जापान ने आज अमेरिका जैसे देश को भी पछाड़ कर जीत लिया है ।

वह जापान , जिसे दूसरे विश्व युद्ध के समय एटम बम्बों से नष्ट कर दिया गया था , आज यदि अमेरिका को अपनी शर्ते मानने के लिए मजबूर कर रहा है , तो इसका मुख्य कारण उसका आत्मनिर्भर हो जाना ही है । इसी से उसका आत्मविश्वास बढ़ा है । आज वह संसार का सबसे उन्नत और विकसित देश माना जाने लगा है । स्पष्ट है कि इस प्रकार का आत्मविश्वास पाने के लिए लगातार परिश्रम करके आत्मनिर्भरता प्राप्त करना आवश्यक है।

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निष्कर्ष

भारत को स्वतंत्र हुए यद्यपि 74-75 वर्ष बीत चुके हैं , फिर भी अभी तक हमारा देश प्रायः किसी भी मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो सका है । यही कारण है कि दूसरे देश और विदेशी संस्थाएँ हमें आदेश देती हैं और हम सिर झुकाकर उन्हें मानते हैं । ताकि उनसे कर्ज प्राप्त हो सके । आत्मनिर्भर बनकर ही इस तरह की राष्ट्रीय शर्त से बचा जा सकता है । स्वतंत्र भारत के प्रत्येक नागरिक को पहले स्वयं आत्मनिर्भर होना है और फिर राष्ट्र को भी हर प्रकार से आत्मनिर्भर बनाना है । ऐसा हो जाने पर ही स्वतंत्रता का वास्तविक आनन्द हमें प्राप्त हो सकेगा , यों घिसटकर तो हम और हमारा देश जी ही रहा है ।

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