राष्ट्रभाषा हिन्दी पर निबंध | rashtrabhasha hindi par nibandh

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भूमिका

प्रत्येक स्वतंत्र राष्ट्र की अपनी एक भाषा हुआ करती है । स्वतंत्र राष्ट्रों की पहचान का एक माध्यम उसकी अपनी भाषा का होना माना जाता है । राष्ट्रों की विचारधारा , भावों की सम्पत्ति , रीति – नीतियां और संस्कृति आदि हर चीज़ उसकी अपनी भाषा में रचे गये साहित्य में सुरक्षित रहा करती है । जिस राष्ट्र की अपनी कोई भाषा नहीं होती , उसका साहित्य भी नहीं हुआ करता । संस्कृति भी सुरक्षित नहीं रह पाती । ऐसे राष्ट्र को सबसे बड़ा दरिद्र और हीन माना जाता है । न तो उसकी अपनी परम्पराएं बन सकती हैं , न रह ही पाती हैं । धीरे – धीरे इतिहास के पन्नों से भी उस राष्ट्र का नाम मिट जाया करता है । तात्पर्य यह है कि राष्ट्रों के स्वतंत्र निर्माण , विकास और सुरक्षा में उसकी राष्ट्रभाषा का बहुत अधिक योगदान रहा करता है । इससे राष्ट्रभाषा का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है ।

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विशेषता

प्रश्न उठता है कि जिसे राष्ट्रभाषा कहा जाता है , उसकी कौन – सी विशेषताएं होती हैं , उसमें कौन – कौन – से गुण रहने चाहिए ? प्रायः सभी समझदार आदमी मानते हैं कि सर्वव्यापकता राष्ट्रभाषा का पहला मुख्य गुण और विशेषता है । अर्थात् वहीं भाषा राष्ट्रभाषा हो सकती है जिसका विस्तार और प्रभाव क्षेत्र व्यापक हो । जो देश के सभी भागों में कम – से – कम समझी तो जाती ही हो , यदि बोली भी जाती हो , तब तो और भी अच्छी बात है । यदि देश के सभी भागों में समझी और बोली न जाती हो , तो अधिक – से – अधिक भागों में तो ऐसा होता ही हो । इसके बाद जिस भाषा को देश के अधिक – से – अधिक लोग पढ़ और लिख सकते हों , वह राष्ट्रभाषा हो सकती है । मुख्य रूप से या प्राथमिक और ऊपरी रूप से राष्ट्रभाषा के यही गुण और विशेषताएँ मानी गयी हैं ।

इसके अतिरिक्त यह भी माना जाता है कि उस भाषा में सबसे अधिक साहित्य रचा गया होना चाहिए । साहित्य भी ऐसा कि जो पूरे देश की सभ्यता – संस्कृति , रीति – नीतियों , अच्छी परम्पराओं , भावों और विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाला हो । देश – जाति का धर्म , गौरव और महत्त्व का गान भी उसी भाषा के साहित्य में होना चाहिए । बनावट की दृष्टि से भाषा का स्वरूप सरल और वैज्ञानिक हो , अपने – आप में पूर्ण हो । सब प्रकार के भावों और विचारों को प्रकट कर पाने में समर्थ हो । उसे उच्चारण के अनुसार ही पढ़ा और लिखा जा सके । कुल मिला कर इन सब प्रकार के बाहरी – भीतरी गुणों और विशेषताओं से युक्त , सम्पन्न भाषा ही राष्ट्रभाषा हो सकती है । इस प्रकार के गुणों वाली भाषाएँ संसार में बहुत कम हैं ।

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एक प्रसिद्ध भाषा

इन सारी बातों को ध्यान में रख कर ही किसी देश की राष्ट्रभाषा कहा जाता है । जब हम इन गुणों और विशेषताओं को ध्यान में रखकर विचार करते हैं , तो पाते हैं कि हिन्दी भाषा में ये सारे गुण अपने जन्मकाल से ही विद्यमान रहे हैं । यही कारण है कि संस्कृत के बाद जन्मी भाषाओं का काल समाप्त होने के बाद , मध्यकाल में आकर जिस भाषा को सबसे अधिक महत्त्व मिल सका वह हिन्दी ही है । उस काल में भी इस भाषा को पूर्व से पश्चिम तक , उत्तर से दक्षिण तक सभी जगह समान रूप से समझा जाता रहा । सबसे अधिक साहित्य , वह भी जातीय गौरव से भरा हुआ साहित्य इसी भाषा में रचा जाता रहा । इतना ही नहीं , ब्रिटिश – शासन – काल में जब देश स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहा था ,

तभी राष्ट्रपिता गांधी के प्रयत्नों से सारे देश ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा मान कर प्रचार – प्रसार करना भी आरंभ कर दिया था। आज चेन्नई, बंगाल आदि जिन क्षेत्रों में हिन्दी भाषा का राष्ट्रभाषा के रूप में ही विरोध किया जाता है , तब इन्हीं प्रान्तों के भाषा – वेज्ञानिकों और राजनेताओं ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा तो माना ही , इसका प्रचार – प्रसार भी किया । इस प्रकार राष्ट्रभाषा स्वतंत्र भारत में संविधान बनने , और उसके लागू होने से पहले ही हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा मान लिया गया था , क्यों ? इसलिए कि ऊपर जो गुण और विशेषताएं बतायी गयी है . बुनियादी रूप से वे सब इस भाषा में विद्यमान हैं ।

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हिंदी के साथ भेदभाव

सन् 1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ , उसके बाद सन् 1950 में जब देश का अपना संविधान बनकर लागू हुआ , तब भी देश की राज्य और राष्ट्र भाषा हिन्दी को ही घोषित किया गया । लेकिन साथ में एक शर्त लगा दी गयी । वह यह कि अगले पन्द्रह वर्षों अर्थात सन् 1965 तक अंग्रेजी ही राष्ट्र और राज्यभाषा बनी रहेगी । इन पन्द्रह सालों में सभी प्रान्तों की सहमति से हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर बैठाने की तैयारी कर ली जायेगी । कितनी विडम्बना , मजाक , बल्कि मूर्खता की बात है कि स्वतंत्रता – प्राप्ति से पहले ही जिस भाषा को राष्ट्रभाषा मान लिया गया था , उसे स्वतंत्रता – प्राप्ति के पन्द्रह वर्षों बाद उसका उचित पद देना था । rashtrabhasha hindi par nibandh

इस मूर्खतापूर्ण कार्य का परिणाम यह निकला कि राजनीतिक स्वार्थों के कारण कल के हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के हिमायती आज उसके विरोधी हो गये ! जिस कारण पन्द्रह वर्ष तो क्या , कई वर्ष बीत जाने के बाद भी हिन्दी संविधान के अनुसार और व्यवहार के स्तर पर बस , कहने को ही राष्ट्रभाषा है , वास्तव में वह दासी भी नहीं । दूसरे – तीसरे दर्जे की भाषा भी नहीं बन पायी । खेद तो तब होता है कि हिन्दी के नाम पर या उसका व्यवहार कर करोड़ों की कमाई करने वाले भी आम व्यवहार में उसका प्रयोग करना सामाजिक हीनता और अपमान समझते हैं । हिन्दी सिनेमा से जुड़े अधिकतर लोग इस गुलाम मानसिकता के स्पष्ट प्रमाण और उदाहरण हैं ।

ज्यादा समझने वाली भाषा

आज भी, वह हिन्दी भाषा है कि देश के किसी भी कोने में जाकर जिससे काम चलाया जा सकता है । इसका अर्थ है कि आज भी हिन्दी को सारे देश में समझा जाता है । टूटे – फूटे रूप में ही सही , आज भी हर प्रान्त का आदमी थोड़ी – बहुत हिन्दी बोलकर अपना काम चला सकता है । आज भी भारत में हिन्दी – भाषी राज्यों की संख्या सबसे अधिक है ! समझने बोलने वालों के अतिरिक्त हिन्दी को सामान्य रूप से पढ़-लिख सकने वाले भी देश में सबसे ज्यादा हैं । अच्छी प्रकार से पढ़-लिख सकने वालों की संख्या भी कम नहीं !

भारत का राष्ट्रीय , जातीय और धार्मिक भावों को प्रकट करने वाला साहित्य संस्कृत के बाद हिन्दी भाषा में ही सबसे अधिक रचा गया है । आज भी सब प्रकार का समूद्ध साहित्य हिन्दी भाषा में रचा जा रहा है । पश्चिमी देशों के हिन्दी – विद्वान सीना फुलाकर हिन्दी को सब प्रकार से समर्थ भाषा मानते और कहते हैं । विकसित देशों के हर विश्वविद्यालय में हिन्दी पीठ स्थापित हैं और वहाँ विदेशी छात्र बड़े चाव से हिन्दी भाषा सीखते और साहित्य पढ़ा करते हैं ।

उपसंहार

स्वरूप-रचना की दृष्टि से हिंदी को पूर्णतया वैज्ञानिक अपने आप में पूर्ण भाषा माना जाता है। उसे उच्चारण के अनुसार ही लिखा और पढ़ा जा सकता है। हर प्रकार के विचार प्रकट कर पाने में भी हिंदी समर्थ है। इस प्रकार राष्ट्रभाषा के सारे गुण सारी विशेषताएं हिंदी में विद्यमान है। फिर भी खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिंदी नाम मात्र को ही राष्ट्रभाषा है। संविधान में उसे राष्ट्रभाषा कह कर दर्ज अवश्य किया गया है, पर वास्तव में वह सरकार के घर-बाहर कहीं भी नहीं है। उसे गँवारों की गँवारू भाषा ही कहा जाता है।

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