पं० प्रतापनारायण मिश्र पर निबंध | Pratap Narayan Mishra ki jivani

pratap narayan mishra par nibandh

जीवन परिचय

पं० प्रतापनारायण मिश्र का जन्म सन् 1856 ई ० में उन्नाव जिले के बैजे नामक गांव में हुआ था । इनके पिता संकटाप्रसाद एक विख्यात ज्योतिषी थे और इसी विद्या के माध्यम से वे कानपुर में आकर बसे थे । पिता ने प्रतापनारायण को भी ज्योतिष की शिक्षा देना चाहा , पर इनका मन उसमें नहीं रम सका । अंग्रेजी शिक्षा के लिए इन्होंने स्कूल में प्रवेश लिया , किन्नु उनका मन अध्ययन में भी नहीं लगा । यद्यपि इन्होंने मन लगाकर किसी भी भाषा का अध्ययन नहीं किया , तथापि इन्हें हिन्दी , उर्दू , फारसी , संस्कृत और बैंगला का अच्छा ज्ञान हो गया था । pratap narayan mishra par nibandh

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एक बार ईश्वरचन्द्र विद्यासागर इनसे मिलने आये तो इन्होंने उनके साथ पूरी बातचीत बंगला भाषा में ही किया । वस्तुतः मिश्र जी ने स्वाध्याय एवं सुसंगति से जो ज्ञान एवं अनुभव प्राप्त किया , उसे गद्य , पद्य एवं निवन्ध आदि के माध्यम से समाज को अर्पित कर दिया । मात्र 35 वर्ष की अल्पायु में ही सन् 1894 ई . में कानपुर में इनका निधन हो गया ।

साहित्यिक परिचय

मिश्र जी ने अपना साहित्यिक जीवन ख़्याल एवं लावनियों से प्रारम्भ किया था , क्योंकि आरम्भ में इनकी रुचि लोक साहित्य का सृजन करने में थी ।यहीं से ये साहित्यिक पथ के सतत प्रहरी बन गये । कुछ वर्षों के उपरान्न ही ये गद्य – लेखन के क्षेत्र में उतर आये । मिश्न जी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित होने के कारण उनको अपना गुरु मानते थे । उनकी – जैसी ही व्यावहारिक भाषा – शैली अपनाकर मिश्र जी ने कई मौलिक और अनूदित रचनाएं लिखी तथा ब्राह्मण ‘ एवं ‘हिंदुस्तान ‘ नामक पत्र का सफलतापूर्वक सम्पादन किया ।

भारतेंदु जी की ‘ कवि वचन सुधा ‘ से प्रेरित होकर मिश्र जी ने कविताएँ भी लिखीं । इन्होंने कानपुर में एक नाटक सभा की स्थापना भी की , जिसके माध्यम से पारसी थियेटर के समानान्तर हिन्दी का अपना रंगमच खड़ा करना चाहते थे । ये स्वयं भारतेन्दु जी की तरह एक कुशल अभिनेता थे । बंगला के अनेक ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद करके भी इन्होंने हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि की । इनकी साहित्यिक विशेषता ही थी कि दाँत , भौ , वृद्ध , धोखा , बात , मुच्छ – जैसे साधारण विषयों पर भी चमत्कारपूर्ण और असाधरण निबन्ध लिखे ।

कृतियाँ

मिश्र जी ने अपनी अल्पायु में ही लगभग 40 पुस्तकों की रचना की । इनमें अनेक कविताएँ , नाटक , निबन्ध , आलोचनाएँ आदि सम्मिलित हैं । इनकी ये कृतियों मौलिक एवं अनूदित दो प्रकार के हैं ।

मौलिक निबन्ध संग्रह – प्रताप पीयूष , निबन्ध नवनीत , प्रताप समीक्षा ।

नाटक – कलि प्रभाव , हठी हमीर , गौ संकट

रूपक – कलि – कौतुक , भारत – दुर्दशा

प्रहसन – ज्वारी – खुआरी , समझदार की मौत ।

काव्य – मन की लहर , श्रृंगार – विलास , लोकोक्ति शतक , प्रेम – पुष्पवली , दंगल खण्ड , तृप्यन्ताम् , ब्राडला स्वागत , मानस विनोद , शैव – सर्वस्व , प्रताप – लहरी ।

सम्पादन – ब्राह्मण एवं हिन्दुस्तान ।

अनूदित – पंचामृत , चरिताष्टक , वचनावली , गजसिंह , राधारानी , कथामाला , संगीत शाकुन्तल आदि ।
इनके अतिरिक्त मिश्र जी ने लगभग 10 उपन्यासों , कहानी , जीवन चरितों और नीति पुस्तकों का भी अनुवाद किया , जिनमें राधारानी , अमरसिंह इन्दिरा , देवी चौधरानी , गजसिंह , कथा बाल – संगीत आदि प्रमुख हैं ।

भाषा – शैली

सर्वसाधारण के लिए अपनी रचनाओं को ग्राह्य बनाने के उद्देश्य से मिश्र जी ने सर्वसाधारण की बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है । इसमें उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है ; जैसे कलामुल्लाह , वर्ड ऑफ गॉड आदि । यत्र – तत्र कहावतों , मुहावरों एवं ग्रामीण शब्दों के प्रयोग से उनके वाक्य में यत्न की भांति ये शब्द जड़ जाते हैं , अतः भाषा प्रवाहयुक्त , सरल एवं मुहावरेदार है । मिश्र जी की शैली के दो रूप मिलते हैं – हास्य – व्यंग्यपूर्ण विनोदात्मक शैली , ( 2 ) गंभीर विचारात्मक एवं विवेचनात्मक शैली । ‘ बात ‘ मिश्र जी की हास्य – व्यंग्यप्रधान शैली में लिखा गया निबन्ध है ।

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