लोकतंत्र या तानाशाही पर निबंध | loktantra ya tanashahi par nibandh

loktantra ya tanashahi par nibandh

भूमिका

शासन की कई प्रकार की प्रणालियाँ आज विश्व में स्वीकृत हैं । उनमें से संसार में प्रचलित लोकतन्त्र और तानाशाही दोनों ही किसी देश का शासन चलाने की प्रमुख प्रणालियाँ हैं । नीतियों , सिद्धान्तों और शासन – संचालन की दृष्टि से दोनों में एक स्पष्ट और बुनियादी अन्तर है । यानि एक का रुख यदि पश्चिम को रहता है तो दूसरी का पूर्व को । दोनों में कहीं किसी भी प्रकार का कोई बुनियादी मेल या एकरूपता नहीं है ।

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लोकतंत्र का अर्थ

लोकतंत्र का सामान्य और व्यापक अर्थ होता है – लोक या जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों का जनहित में प्रशासन । इस प्रकार लोकतन्त्र में लोक या जनता की इच्छा और सक्रियता ही प्रमुख होती है । उसी के सब प्रकार के हित – साधन को केन्द्र में रखकर समूचे शासन की नीतियाँ निर्धारित की और चलायी जाती हैं । उसका आदि , मध्य , अन्त सभी कुछ जन – सागर में समाहित रहता है । जनता अनचाहे , अयोग्य प्रतिनिधि शासकों को पाँच वर्ष बाद चुनावों में अपने मतदान का उचित प्रयोग करके बदल भी सकती है । कुल मिलाकर लोकतन्त्र में जनता को जागरूक इच्छा , सत्ता , शक्ति और प्रभाव के साथ – साथ हित – साधन ही केन्द्रीय और आधारभूत तत्त्व माना जाता है ।

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तानाशाही का अर्थ

लोकतंत्र के विपरीत तानाशाही में समूचे शासन की बागडोर और सभी प्रकार की सत्ता का केन्द्र एक ही व्यक्ति हुआ करता है । इसी कारण इस शासन – पद्धति को एकतंत्र भी कहा जाता है । इसे पुरानी राजतंत्र और सामन्तशाही का आधुनिक रूप भी कह सकते हैं । उनमें सर्वोच्च सत्ता एक व्यक्ति में केन्द्रित हुआ करती थी , तानाशाही में भी ऐसा ही होता है । इस पद्धति में तानाशाह या शासक व्यक्ति अपने पद और महत्त्व को बचाये रखकर , हमेशा बनाये रखने के लिए अपनी इच्छा के अनुसार ही समूचे प्रशासनतंत्र का गठन करता है ।

उच्च और महत्त्वपूर्ण पदों पर ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त करता है जो उसके ‘ जी हजूर ‘ और विश्वस्त हों । वे लोग अपने नेता के हित में जनता को दबाकर रख सकें , उसे मुंह खोलने तक का अवसर न दें । इस प्रकार कुल मिलाकर एक ही व्यक्ति के हाथों देश की समूची सत्ता का केन्द्रित होकर रह जाना ही तानाशाही है ।

लोकतंत्र और तानाशाही के स्वरूप

लोकतन्त्र में प्रशासन – सम्बन्धी प्रत्येक कार्य की प्रक्रिया बड़ी लम्बी हुआ करती है । शासनतन्त्र से जुड़ा प्रत्येक व्यक्ति अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व और महत्त्व रखता है । पर इसे एक दुखद स्थिति ही कहना होगा कि इस प्रक्रिया में किसी कार्य का पूरा दायित्व न तो कोई लेना ही चाहता है और शायद लेने का अधिकार भी किसी एक को नहीं रहता । अत : कई बार तात्कालिक महत्त्व के मामले भी बरसों तक , कई बार तो तब तक लटके रह जाते हैं कि जब तक उनकी उपयोगिता और महत्त्व दोनों समाप्त नहीं हो जाते । व्यक्तिगत मामलों में तो व्यक्तियों की मृत्यु के बाद भी मामले लटके रहे देखे जा सकते हैं ।

इसके विपरीत तानाशाही में जो काम होते हैं , उनकी प्रक्रिया बड़ी तेज होती है । उसकी राह में विभिन्न स्तरों पर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा टाँग अड़ाने की गुंजायश ही नहीं रहती ! दूसरे , लोकतन्त्र में शिक्षित – अशिक्षित प्रत्येक व्यक्ति चुनाव जीतकर बड़े – से – बड़ा पद प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार से अशिक्षित – अनपढ़ व्यक्ति भी जब महत्त्वपूर्ण पदों पर पहुँच जाते हैं , तो उनमें स्वयं कार्य – व्यापार चलाने की क्षमता तो रहती नहीं , अत : समूची विभागीय व्यवस्था और कार्य प्रक्रिया नौकरशाही या लाल फीताशाही का शिकार होकर रह जाती है ।

निहित स्वार्थी नौकरशाह जन – हित में किये जाने वाले कार्यों का लाभ भी आम जन तक नहीं पहुँचने देते । परिणामस्वरूप अनेक प्रकार के ऐसे भ्रष्टाचारों का जन्म होता है , जिनका भोग आज सभी लोकतन्त्री देशों की जनता , विशेषकर स्वतंत्र भारत की आम जनता बड़ी व्यथा के साथ कर रही है । तानाशाही या एकतन्त्र में इस प्रकार के घोटालों की प्रायः गुंजायश नहीं रहा करती । प्रशासन में बैठा एक व्यक्ति या तानाशाह यदि सचमुच निस्वार्थ और जनहित का इच्छुक हो , तो वह बहुत जल्दी आम जन के हित में कुछ भी कर सकता है । अफसरशाही विवश होकर रह जाती है ।

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विचारों की स्वतंत्रता

गणतंत्र , जनतंत्र या लोकतंत्र में हर व्यक्ति को बोल- लिखकर विचारों को व्यक्त करने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है । वह शासन की भी मुक्त भाव से आलोचना कर सकता है । इसके विपरीत तानाशाही में इस प्रकार की स्वतन्त्रता कतई नहीं रहती । वहाँ प्रत्येक व्यक्ति को , प्रेस को भी तानाशाह के स्वरों में ही बोलना – लिखना पड़ता है । लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित रहा करती है – यदि उसका व्यक्तिगत आचरण व्यवहार अनुचित और समाज – विरोधी नहीं है तो । इसके विपरीत तानाशाही में व्यक्ति स्वतन्त्रता का कोई महत्त्व नहीं होता । वास्तव में उचित आचरण वाला व्यक्ति या व्यक्तियों की स्वतन्त्रता सर्वोच्च है , सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । जिस शासन – पद्धति में वह सुरक्षित नहीं रह सकती , उसको कभी भी मानवीय नहीं कहा जा सकता । इस दृष्टि से तानाशाही का महत्व स्वयं घट जाता है । वह घृणित और त्याज्य हो जाती है ।

जहाँ तक लोकतंत्र की सफलता और तानाशाही की असफलता का प्रश्न है , आज के युग में विशेषतः भारत के सन्दर्भ में , ये दोनों ही पद्धतियाँ अभी तक असफल सिद्ध हुई हैं । तानाशाही के परिणाम विश्व की मानवता दो विश्व युद्धों के रूप में भीषणता के साथ भोग चुकी है , आज भी उनसे उत्पन्न प्रभावों से मुक्त नहीं हो सकी । उसी प्रकार संसार के सभी जनतन्त्रीय व्यवस्था वाले देशों में जनतन्त्र या लोकतन्त्र भी अपना कोई गुणात्मक प्रभाव नहीं दिखा सका है । इसने भी आम जन को शोषित और पीड़ित ही किया है । ये शोषण और उत्पीड़न निरन्तर बढ़कर लोकतन्त्र का मज़ाक उड़ा रहे हैं ।

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निष्कर्ष

इस तुलनात्मक अध्ययन के निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि शासन – पद्धति और व्यवस्था का रूप चाहे कोई भी हो , उसमें आम जनता का भला होना चाहिए , तभी वह सार्थक है । फिर भी लोकतंत्र में घर कर गयी बुराइयों को यदि किसी प्रकार जड़ – मूल मिटाया जा सके , तो वह मानवता के भविष्य के लिए अधिक सुखकर तथा हितकारी हो सकता है बहुमत यही कहता है । पर ऐसा होने के आसार नज़र नहीं आते । वस्तुतः हो यह रहा है कि जनतंत्रीय व्यवस्था लाल फीताशाही का शिकार होकर क्षय रोग के समान जीवन – समाज के ढाँचे तक को गलाकर नष्ट कर देना चाहती है। इसे रोका जाना चाहिए ।

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