लघु या कुटीर उद्योग पर निबंध | Laghu ya Kutir Udyog par nibandh

Laghu ya Kutir Udyog par nibandh

भूमिका

आरंभ से ही भारत ग्राम संस्कृति प्रधान देश है । नगरों , महानगरों में अपार भीड़-भाड़ रहने पर भी, आज भी भारत की अधिक जनसंख्या गाँवों जैसी परिस्थितियों में ही निवास कर रही है । अपने अस्तित्व काल से लेकर आज तक भारत को अनेक प्रकार की विघटनकारी परिस्थितियों से गुजरना पड़ा है । आजादी प्राप्ति के बाद के अपने नव निर्माण काल में भी उसे अनेक प्रकार की प्रवृत्तियों और परिस्थितियों से दो – चार होना पड़ रहा है । फिर भी यहाँ नित नये उद्योग – धन्धों , कल – कारखानों , बड़ी – बड़ी औद्योगिक इकाइयों का निर्माण होता जा रहा है । इस प्रवृत्ति के चलते चन्द अमीर और भी अमीर होते जा रहे हैं , और गरीब रोटी – कपड़े के लिए और अधिक मुहताज होते जा रहे हैं । अन्य अनेक प्रकार की शोषक और भ्रष्ट प्रवृत्तियाँ भी अनवरत पनप रही हैं ।

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एक नकली और काला बाज़ारी समानान्तर अर्थ – व्यवस्था पनप कर समूचे जनतन्त्र और जनाकांक्षाओं को भूमिसात किए दे रही है । प्रश्न उठता है कि फिर इस सबसे बचाव और निस्तार का उपाय क्या है ? उत्तर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने स्वतन्त्रता – प्राप्ति से पहले ही दे दिया था । वह यह कि भारत देश के लिए बड़े – बड़े उद्योग – धन्धों की आवश्यकता नहीं , बल्कि छोटे – छोटे लघु या कुटीर – उद्योगों , परम्परागत उद्योग – धन्धों के विकास की आवश्यकता है ।

कुटीर उद्योगों के प्रति उदासीनता

बड़े खेद की बात है कि स्वतन्त्र भारत में महात्मा गाँधी जैसे अनुभवी युग नेता की बात को न तो समझा गया और न महत्त्व ही दिया गया । इसके जो परिणाम सामने आये या आ रहे हैं , वह आज के प्रबुद्ध लोगों को विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं । उनका संकेत हम ऊपर कर ही आये हैं और अनेक दुष्प्रभावों एवं दुष्परिणामों का उल्लेख भी किया जा सकता है । अनेक प्रबुद्ध लोगों ने समय – समय पर किया भी है । आज की अनेक बुराइयाँ औद्योगीकरण की देन मानी जाती है । इसने वर्ग – भेद को उभार कर आदमी – आदमी के बीच की खाई को पाटने के स्थान पर और चौड़ा किया है । मनुष्य पूर्णतया मशीनों पर आश्रित होकर स्वयं भी मशीन की तरह निर्दय एवं हृदयहीन बन गया है ।

अपने बाहुबल पर विश्वास खोकर वह पूर्णतया परावलम्बी और परमुखापेक्षी होकर रह गया है । फिर बड़े – बड़े उद्योगों का निर्माण – विस्तार नगरों – महानगरों में ही होने के कारण गाँव – खेड़े खाली होते जा रहे हैं । शहरों पर अनावश्यक दबाव बढ़कर अनेक समस्याओं , दुराचारों और बुराइयों को जन्म दे रहा है । दूरदर्शिता से काम लेते हुए , इन सब बुराइयों विषमताओं का अनुमान लगाकर ही गाँधीजी ने ग्रामाभिमुख लघु या कुटीर – उद्योगों की स्थापना का नारा देश को दिया था , जिसकी ओर से चूक कर हमारा देश केन्द्रीकृत बड़े – बड़े उद्योगों के जाल में फँसता गया और आज वह अनेक प्रकार की विषमताओं में पिसने को विवश होकर रह गया है ।

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कुटीर उद्योग का अर्थ

लघु या कुटीर उद्योग से आशय ऐसे-ऐसे छोटे-छोटे परम्परागत एवं नये उद्योग-धन्धे स्थापित करना है , जो कर्मकारों के अपने परिवेश-गाँव या कस्बे आदि के आस-पास ही पनप कर अधिक से अधिक लोगों को काम देकर उनकी रोजी-रोटी की समस्या का समाधान कर सकें । ताकि उन्हें दूर जाकर अपनी मूल भूमि से कटने की व्यथा न भोगनी पड़े । इसके लिए पूँजी की भी बहुत अधिक आवश्यकता नहीं होती । अत: इन धन्धों के कुछ ही समर्थ लोगों के हाथों में जाकर शोषण का अवसर नहीं रहता । कोई भी व्यक्ति थोड़ी-सी पूंजी , श्रम , बुद्धिमत्ता और प्रबल इच्छा से इनका सहज आयोजन कर सकता है । आज फिर सरकार का ध्यान इस ओर गया है । उसने इनकी जरूरत और महत्त्व को पहचाना है । इस कारण आज अनेक लघु या कुटीर उद्योगों के प्रशिक्षण की कई स्थानों पर उचित व्यवस्था की गयी है ।

प्रशिक्षित कर्मियों को अपने उद्योग-धन्धे स्थापित करने के लिए उचित मार्गदर्शन तो दिया ही जाता है , ब्याजमुक्त या बहुत कम ब्याज पर ऋण देने की भी व्यवस्था की गई है , जिसे चुकता करने में भी असुविधा नहीं होती । उसे अपने उत्पादनों के द्वारा सहज ही चुकाया जा सकता है । सरकार ने ऐसी सहकारी समितियों या क्रय – विक्रय – विभागों की स्थापना भी की है , जहाँ जाकर लघु या कुटीर – उद्योगों के उत्पादक अपने उत्पादों का सरलता के साथ उचित मूल्य पर विक्रय कर सकते हैं । इस प्रकार अब कुटीर उद्योगों को स्थापना और विकास का मार्ग बड़ा ही सहज , सरल एवं सर्व सुलभ हो गया है । कोई भी व्यक्ति इस क्षेत्र में कदम जमा सकता है ।

उपयोगिता

सरकार ने समय – समय पर घोषणाएँ करके कुछ विशेष प्रकार की वस्तुओं , कल – पुर्जों के उत्पादन के लिए केवल कुटीर – उद्योगों का अधिकार सुरक्षित कर दिया है । फिर इस बात का भी ध्यान रखा जाने लगा है कि कुटीर उद्योग बड़े – बड़े उद्योगों , कल – कारखानों के सहकारी उद्योग बन कर अपना विकास और उत्पादन कर सकें । इससे यह सुविधा हो गयी है कि लघु – उद्योगों की कई विशिष्ट इकाइयों – स्वरूपों को अब अपने उत्पादों की बिक्री के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता । सम्बद्ध बड़े उद्योग उनके उत्पाद स्वयं ही उठवा लेते हैं ।

लघु उद्योगों के विस्तार और विकास के लिए यह एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सुविधा है । इस प्रकार की सुविधाओं का विस्तार कुटीर उद्योगों के और अधिक विकास में निश्चय ही बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है । इससे प्रोत्साहन पाकर जो लोग थोड़ा या अधिक पढ़ – लिखकर नौकरियों की ओर भागते हैं , वे स्वयं भी सम्पन्न रोज़गार या प्रतिष्ठान के स्वामी हो सकते हैं । अपने जैसों या असमर्थों को सहज ही रोज़गार प्रदान भी कर सकते हैं । इससे निश्चय ही बेकारी की समस्या के समाधान में बड़ा योगदान मिलेगा । अनेक प्रकार के अभाव – अभियोग भी समाप्त हो जायेंगे । व्यक्ति और राष्ट्र दोनों स्वावलम्बी बनकर निरन्तर उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ सकेंगे ।

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निष्कर्ष

आज नगर , कस्बा , गाँव आदि सभी स्तरों पर अनेक कुटीर उद्योगों की निरन्तर स्थापना हो रही है । हमारे विचार में उन्हें अधिकाधिक ग्रामाभिमुख बनाने की आवश्यकता है । इससे उन खेतिहर किसानों , मजदूर किसानों को भी रोज़गार के अवसर सुलभ हो सकेंगे , जो फसल कट जाने के बाद बेकार हो जाते हैं । ये परम्परागत काम – धन्धे भी फिर से स्वरूपाकार पाकर पनप सकेंगे , जिन्हें हम आर्थिक या अन्य किन्हीं कारणों से उपेक्षित कर बैठे हैं । श्रम का महत्त्व बढ़ेगा , श्रमिक और परम्परागत कारीगर का महत्त्व बढ़ेगा । गाँव उन्नत होंगे , उनका नगरों की ओर पलायन रुकेगा ।

नगर – गाँव दोनों मुक्त साँस ले पाने में समर्थ हो सकेंगे । तब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का गाँव स्वराज्य का वह सपना पूरा होगा जिसके लिए वे आजीवन सचेष्ट रहे । नगर – स्वराज्य भी सच्चे अर्थों में तभी पूर्णतया आ सकेगा, जब ग्राम संस्कृति प्रधान देश का ग्राम जीवन उन्नत हो सकेगा । वह कुटीर उद्योगों के विकेंद्रीकृत विस्तार से ही संभव हो सकता है, केंद्रीकृत विशाल उद्योग-धंधों की स्थापना और विस्तार मात्र से नहीं । वह तो चंद स्थापित पूंजीपतियों को ही लाभ पहुंचा सकता है ।

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