मोहन राकेश पर निबंध |Biography of mohan rakesh in hindi

Mohan Rakesh par nibandh

भूमिका

मोहन राकेश समकालीन हिंदी कथा और रंगमंच में एक प्रमुख व्यक्ति हैं। उनका नाटकीय लेखन देश भर के कई विश्वविद्यालयों में व्यापक जांच का विषय रहा है। कथा साहित्य की तुलना में रंगमंच साहित्य पर अधिक जोर दिया गया है। माना जाता है कि मोहन राकेश में क्षमताओं की एक विस्तृत श्रृंखला है। उन्होंने कहानी, नाटक और पुस्तक की साहित्यिक विधाओं में मूल रचनाएँ लिखी हैं। एक शैली के नजरिए से उनके कार्यों के अध्ययन की अनदेखी की गई है। इस अध्ययन का प्राथमिक लक्ष्य इस अल्पविकसित घटक पर प्रकाश डालना था। उनकी कथा कथाएँ, उपन्यास और अन्य रचनाएँ सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं और उच्च गुणवत्ता की हैं। उनकी साहित्यिक शैली आदर्शों के बीच संघर्ष की विशेषता रही है।

Mohan Rakesh par nibandh

व्यक्तित्व

मोहन राकेश का जीवन विसंगतियों से भरा हुआ है। हम इसके वास्तविक सार को तब तक नहीं जान सकते जब तक हम इन विरोधाभासों को नहीं समझते। राकेश ने हमेशा नई चीजों के साथ काम किया है। उनका प्रयोग उनके काम में स्पष्ट है। उन्होंने हर समय आत्मनिर्भर होने का प्रयास किया और परिणामस्वरूप, उन्हें कई बार अपना काम छोड़ना पड़ा। मोहन राकेश को नए लोगों से मिलना, कॉफी शॉप में बैठना और दिल खोलकर हंसना अच्छा लगता था। उनके लेखन ने उनकी जिज्ञासा को सबसे अधिक बढ़ाया।

Mohan Rakesh par nibandh

जन्म स्थान एवं मृत्यु

मोहन राकेश का जन्म अमृतसर के एक कट्टर सनातनी परिवार में 8 जनवरी 1925 ई० को हुआ । उनका आकस्मिक निधन 3 दिसंबर 1972 ई० को दिल्ली में हृदय गति बंद होने से 48 वर्ष की आयु में हो गया । उनकी मृत्यु की खबर से देश का प्रबुद्ध और संवेदनशील वर्ग शोक विह्वल हो गया ।

शिक्षा

मोहन राकेश अमृतसर में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए लाहौर चले गए । ओरिएण्टल कॉलेज , लाहौर से संस्कृत में एम० ए० परीक्षा उत्तीर्ण की , पर ज्ञान पिपासा शांत न हो सकी । पंजाब विश्वविद्यालय से 1947 ई० में हिंदी में एम० ए० किया । फिर वे अपने कार्य क्षेत्र में व्यापक रूप से जुड़ गए । मोहन राकेश हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता थे ।

परिवार

मोहन राकेश एक ठेठ परिवार में पले-बढ़े। वह एक सनातनी परिवार से आते थे जो काफी धार्मिक था। उनके पिता करमचंद गुगलानी एक वकील थे, जबकि उनकी माँ धार्मिक संस्कारों की महिला थीं। गुगलानी परिवार आर्थिक रूप से निम्न मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखता है। करमचंद एक जाने-माने वकील थे, फिर भी उन्हें अक्सर आधार लेना पड़ता था क्योंकि उनके परिवार की मांग उनकी आय से अधिक थी। कर्जदाताओं के डर से घर में लगातार तनाव का माहौल बना हुआ था। उनके माता-पिता को डर था कि अगर वे धन, कपड़े और अन्य वस्तुओं का स्वतंत्र रूप से उपयोग करते हैं, तो देनदार उन्हें जब्त कर लेंगे। राकेश के पास अपने दमनकारी घर में रहने के अलावा कोई चारा नहीं था।

पिता एक पढ़े-लिखे व्यक्ति थे जो हमेशा अपने बच्चों की शिक्षा के बारे में चिंतित रहते थे। उनके पिता ने उन्हें बचपन में ही संस्कृत की शिक्षा दी थी। तेरह वर्ष की आयु में संस्कृत काव्य की रचना करके उन्हें अपने पिता का सहयोग प्राप्त हुआ। पिता के साहित्यकार शाम को सभा में शामिल होते थे। खुले चुटकुलों के बीच, साहित्यिक बातचीत, कविता पाठ और अन्य गतिविधियाँ हुईं। नतीजतन, उस हानि रहित अवस्था में, उनका मन किताबों की ओर गहराई से आकर्षित हुआ, और उनका साहित्यिक साहसिक कार्य शुरू हुआ। राकेश वैष्णव और सात्विक परिवार में जन्म लेते हुए बड़े होकर कुछ विद्रोही हो गए। Mohan Rakesh par nibandh

आर्थिक परिवेश

राकेश के परिवार की स्थिति दयनीय थी। परिवार की आर्थिक तंगी के कारण घर में लगातार तनाव का माहौल बना रहता था। पिता का स्वभाव अधिक महंगा होने के कारण वह कर्ज में डूबा रहता था। एक दुकान भी थी, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। दुकान पर ही काफी कर्ज था। कर्ज चुकाने के लिए घर को गिरवी रखना पड़ा। इसके बावजूद कर्ज कम नहीं हुआ है।

वैवाहिक जीवन

मोहन राकेश का अधिकांश साहित्य मध्यवर्ग के एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न पर केंद्रित है । वह है पति – पत्नी के संबंध का तनाव । इसका कारण उनके वैवाहिक जीवन की असफलता ही माना जाता है । सन् 1950 ई० में राकेश ने सुशीला नामक आधुनिक युवती से विवाह कर लिया । इस विवाह के संदर्भ में तिलकराज शर्मा लिखते हैं – राकेश ने अनचाहे रूप में , एक प्रकार से एक अनचाही युवती से विवाह कर लिया था । दूसरी ओर, उनके अहंकार को कमाऊ पत्नी का अहंकार पसंद नहीं था। उनकी पत्नी में बहुत अहंकार था ।

उनकी शिक्षा का स्तर उनके जैसा ही था। उसने उससे ज्यादा पैसा कमाया। उसे अपनी स्वतंत्रता पर काफी गर्व था और वह जानती थी कि अकेले रहकर वह किसी भी स्थिति का सामना कर सकती है । बातचीत भी वह खुले मर्दाना ढंग से करती थी । विवाह के पहले से ही राकेश को हीनता का एहसास दिलाया जाने लगा । विवाह की रस्मों में सादगी की बजाय भोंडा आडंबर देखकर उन्हें और भी दुःख हुआ । विवाह के बाद पहली रात को ही विवाह की असफलता के बीज बो दिए गए थे । 7 साल बाद, एक बच्चे के जन्म के बाद उनका संबंध अलग हुआ। वह उस नौजवान से प्यार करता था, लेकिन उसे अपनी दूरी बनाए रखनी पड़ी क्योंकि उसे वह जगह नहीं मिली जिसकी उसे तलाश थी।

दूसरा और तीसरा विवाह

1960 में, राकेश ने एक दोस्त की बहन पुष्पा से शादी की, जो साहित्य और जीवन में लगातार प्रयोग करने वाली थी। राकेश ने फिर गलती की। यह लड़की राकेश के एक करीबी दोस्त की बहन थी और राकेश ने उसे न केवल दो बार देखा था बल्कि कई बार उसके घर भी आया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनकी पहली पत्नी के व्यक्तित्व से इसका व्यक्तित्व बिल्कुल भिन्न था । जिसे उन्होंने पारिवारिक माना उससे भी उनका परिवार न बना तो संबंध विच्छेद के बिना ही उससे अलग होना पड़ा ।

सन् 1963 से उन्होंने अनीता औलक के साथ रहना आरंभ किया । अनीता की दो सन्तानें हैं – पुरवा और शैली । धीरे – धीरे अनीता औलक ने उनके सारे घाव भर दिए । बेटी पुरवी के पैदा होने से उनको इतना प्रेम मिला कि उनके हृदय की कटुता दूर होती चली गई और उनको जीवन के प्रति लगाव बढ़ने लगा ।

Mohan Rakesh par nibandh

अध्यापन

मोहन राकेश कभी किसी पेशे या व्यवसाय के लिए प्रतिबद्ध नहीं थे। उन्होंने अपना इस्तीफा हर समय अपनी जेब में रखा। 1947 में, उन्होंने हिंदी में एमए किया। मोहन राकेश ने 1947 में ही बम्बई के एल्फिन्स्टन कालेज में हिंदी शिक्षण के लिए प्रोफेसर नियुक्त हुए । उन्होंने 1949 ई० में एल्फिन्स्टन कालेज से अपने को अध्यापन कार्य से मुक्त किया । कुछ समय वे दिल्ली में बेकार रहें , तदुपरांत डी० ए० वी० कालेज में प्राध्यापक नियुक्त हुए । वहाँ पर भी ‘ टीचर्स युनियन ‘ को लेकर वे सक्रिय हुए और जिसके कारण ही सन् 1950 में उन्हें वहाँ से भी त्यागपत्र देना पड़ा ।

उसके बाद उन्होंने शिमला के बिशप कॉटन स्कूल में पद ग्रहण किया, लेकिन अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के कारण वे वहां भी अपना भरण-पोषण नहीं कर पाए। नतीजतन, उन्होंने उस पद से भी इस्तीफा दे दिया। वहाँ, वह अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए पूरी तरह से लेखन पर भरोसा करके जीवन यापन करने की इच्छा से प्रेरित था, लेकिन उसका अभियान विफल रहा। परिस्थितियों के कारण उन्हें काम पर लौटना पड़ा। तीन वर्ष पूर्व जालंधर के जिस डी० ए० वी० कालेज में वे ‘ कनफर्म ‘ नहीं किए गए थे , वहीं विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए । उन्होंने 1955 ई० में वहाँ 4 वर्ष 4 महीने तक नौकरी करने के बाद पद से त्यागपत्र दे दिया ।

कृतित्व

आधुनिक हिंदी लेखन में मोहन राकेश का योगदान महत्वपूर्ण है। कथा, नाटक और उपन्यास विधाओं में उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित की। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखा है। भारतेंदु और प्रसाद के बाद मोहन राकेश आधुनिक हिंदी नाटकों में दिखाई देते हैं। उन्होंने हिंदी नाटक को अंधेरे से बाहर निकाल कर एक नए युग की शुरुआत की। वह हिंदी की क्षेत्रीय सीमाओं से ऊपर उठने वाले और देश के नाटककारों के साथ-साथ अपने समय के प्रमुख भारतीय नाटककारों के वंश में माने जाने वाले पहले लेखक हैं। उनकी रचनाएँ अच्छी तरह से तैयार और योजनाबद्ध हैं। उनके नाटकों का पाठक के प्रति विशेष लगाव है क्योंकि वे आज की दुनिया में स्थापित हैं।

नाटक

आषाढ़ का एक दिन (1958)
लहरों के राजहंस (1963)
आधे अधूरे (1969)
पैर तले की जमीन (अपूर्ण)

उपन्यास

अंधेरे बंद कमरे में (1961)
न आने वाला कल (1968)
अंतराल (1972)

कहानी संग्रह

इन्सान के खंडहर (1950)
नए बादल (1957)
जानवर और जानवर (1958)
एक और जिंदगी (1961)
फौलाद का आकाश (1966)
आज के साये (1967)
रोयें रेशे (1968)
मिले – जुले चेहरे (1969)
एक – एक दुनिया (1969)
पहचान (1972)
मोहन राकेश की श्रेष्ठ कहानियाँ (1972)
चेहरे (1972)
क्वार्टर (1972)
मेरी प्रिय कहानियाँ (1971)
वारिस (1972) आदि ।

निष्कर्ष

उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि मोहन राकेश का व्यक्तित्व जितना बहुआयामी है उतना उनका कृतित्व भी बहुआयामी है । मोहन राकेश के जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलू संघर्ष और लेखन कार्य दिखाई देते हैं ।

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