शिवप्रसाद सिंह पर निबंध | Shiv Prasad Singh par nibandh

Shiv Prasad Singh par nibandh

व्यक्तित्व

शिवप्रसाद सिंह का जन्म 19 अगस्त , 1928 ई० में वाराणसी जिले के एक किसान परिवार में हुआ था । आपके पिता का नाम चन्द्रिका प्रसाद सिंह था । आपकी शिक्षा वाराणसी के उदय प्रताप विद्यालय और हिन्दू विश्वविद्यालय में एम० ए० , पी० एच० डी० ० तक हुई । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष भी रहे । आपका लेखन क्षेत्र व्यापक रहा है । आपने आलोचना , शोध , सम्पादन , जीवनी , कहानी , नाटक , उपन्यास आदि सभी दिशाओं में काम किया है । इनका निधन 28 सितम्बर , 1998 ई० को वाराणसी में हुआ ।

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कृतित्व

शिवप्रसाद सिंह के 5 कहानी-संग्रह कर्मनाशा की हार , इन्हें भी इन्तजार है , मुरदा सराय , भेड़िये और आर पार की माला प्रकाशित हो चुके हैं । एक नाटक ‘ घाटियाँ गूँजती हैं तथा दो उपन्यास ‘ अलग – अलग वैतरणी ‘ तथा ‘ गली आ मुड़ती है ‘ भी प्रकाश में आ चुके हैं ।

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कथा शिल्प

शिवप्रसाद सिंह की कहानियों में सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के समसामयिक विविध पहलुओं को चित्रित किया गया है । ग्रामांचलों के प्रति आपका विशेष लगाव था । ‘ दादी माँ ‘ , ‘ पापजीवी ‘ , ‘ बिंदा महाराज ‘ , ‘ हाथ का दाग ‘ , ‘ केवड़े का फूल ‘ , ‘ सुबह के बादल ‘ , ‘ अरुन्धती ‘ , ‘ मुरदा सराय आदि आपकी श्रेष्ठ कहानियाँ हैं । मानव के प्रति आपमें गहरी संवेदना रही है विशेषकर उस मानव के प्रति जो व्यक्तिगत और सामाजिक समस्याओं व रूढ़ियों से ग्रस्त हो । आप समन्वयशील विचारक थे । जीवन का यथार्थ प्रस्तुत करते हुए आप उसे नैतिक समाधान देते रहे । यह नैतिकता पुराने आदर्शों से जुड़ी हुई है , किन्तु बौद्धिकता और तर्क की कसौटी पर भी खरी उतरती है । आपकी कहानियों में निम्न वर्ग के प्रतिनिधि पात्र स्थान पाते रहे हैं । चरित्र चित्रण व्यक्तिपरक तथा मनोवैज्ञानिक होता है । बाह्य समस्याओं की पृष्ठभूमि में पात्रों के मनोद्वन्द्व को उभारने में आप विशेष कुशल थे ।

भाषा शैली

कहानियों की भाषा प्रांजल है किन्तु व्यावहारिक और लोक – जीवन की शब्दावली के सटीक प्रयोग की विशेषता उसमें सर्वत्र मिलेगी । आपकी रचना – शैली सरल , सहज तथा चित्रात्मक है । रोमानी भावात्मकता और कवित्वपूर्ण वर्णनों के कारण आपकी कहानियाँ अत्यन्त मोहक और मर्मस्पर्शी हो उठी हैं ।

‘ कर्मनाशा की हार ‘ आपकी प्रसिद्ध कहानी है , जिसका अनुवाद अंग्रेजी , जर्मन , डेनिश और रूसी भाषाओं में हो चुका है । रूसी में अनूदित हिन्दी कहानियों के संकलन ‘ चिनगारियाँ बुझी नहीं ‘ की भूमिका में विक्टरवालीन लिखते हैं “ इस कहानी की मुख्य विशेषता है नाटकीय संघर्ष तथा पुरानी पड़ती रूढ़ियों के प्रति मानवीय आदर्शों की लड़ाई का चित्रण । ” भैरव पाँड़े यह बात स्वयं अनुभव करते हैं कि मानवीय सम्बन्धों के संघर्षमय सन्दर्भ में असली मानवता क्या है ।

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