जगन्नाथदास 'रत्नाकर' पर निबंध| Jagannath Das Ratnakar per nibandh

Jagannath Das Ratnakar per nibandh

व्यक्तित्व

अंतिम ब्रजभाषा के कवियों में महाकवि जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ का उल्लेखनीय स्थान है। वर्ष 1866 ई० में भाद्रपद सुदी पंचमी के दिन उनका जन्म काशी में एक प्रसिद्ध वैश्य परिवार में हुआ था । तुलाराम उनके दादा का नाम था, और पुरुषोत्तम दास उनके पिता का नाम था । भारतेन्दु जी के उनके पिता घनिष्ठ मित्र थे। उन्होंने बचपन में उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी में स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी । अपनी माँ की मृत्यु के कारण वह बी० ए०, एल० एल० बी० पूरा करने के बाद अपनी एम० ए० (फ़ारसी) की पढ़ाई जारी रखने में असमर्थ थे। राजा की मृत्यु के बाद, अवागढ़ (एटा) के खजाने के निरीक्षक , 1902 ई० में अयोध्या के राजा के निजी सचिव बने, फिर 1906 ई० में रानी के निजी सचिव।

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कार्यक्षेत्र

राज दरबार से सम्बद्ध रहने के कारण इनका रहन – सहन सामन्ती था , लेकिन प्राचीन धर्म , संस्कृति और साहित्य में गहरी आस्था थी । प्राचीन भाषाओं का ज्ञान था तथा विज्ञान की अनेक शाखाओं में इनकी गति थी । भारत के कई प्रसिद्ध तीर्थ एवं प्रमुख स्थानों का इन्होंने भ्रमण किया । विद्यार्थी काल से ही उर्दू – फारसी में कविता लिखते थे , लेकिन कालान्तर में ब्रजभाषा में रचना करने लगे । ‘ साहित्य सुधानिधि ‘ और ‘ सरस्वती ‘ का सम्पादन रसिक मण्डल ‘ का संचालन तथा काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना एवं विकास में योग दिया । उन्हें हिन्दी विभाग के अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और चौथे ओरिएंटल सम्मेलन का अध्यक्ष नामित किया गया । 21 जून, 1932 ई० को उनका हरिद्वार में निधन हो गया। रत्नाकर फिर हिंदी मां को कभी नहीं मिल सका ।

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काव्यगत विशेषता

रत्नाकर जी की काव्य – साधना , काव्य के सभी गुणों से ओत – प्रोत है । इन्होंने सूरदास से माधुर्य भावना , तुलसीदास से प्रबन्ध पद्धति और भंगारी कवियों से मुक्तक शैली ग्रहण करके अपने काव्य में इन सबका समन्वय किया है । इन्होंने अपने काव्य का विषय पौराणिक कथाओं एवं घटनाओं को बनाया है , फिर भी उनमें सूर एवं तुलसी की अपेक्षा नवीनता है । इन्होंने भक्तिकालीन ‘ भावनाओं को रीतिकालीन अलंकारमय पद्धति में अभिव्यक्त किया है । इन्हें कला के क्षेत्र में जितनी सफलता प्राप्त हुई है , उतनी भाव – पक्ष में । शब्द की दोनों शक्तियों लक्षण और व्यंजना के बल पर इन्होंने भाव और भाषा का अपूर्व सन्ध्य किया है ।

जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, कवियों में से एक, जो कविता के अभ्यास में लीन थे, ने भी अपनी मध्यकालीन प्रवृत्ति के अनुसार एक मध्यकालीन वातावरण की खोज की थी, जहाँ तक संभव हो समकालीन चेतना की उपेक्षा करते हुए और मध्यकालीन दृष्टिकोण में लीन थे। राजाश्रय में मध्यकालीन काव्य का प्रादुर्भाव हुआ और ‘रत्नाकर जी’ ने पहले अवागढ़ के महाराजा और बाद में अयोध्या के राजा के साथ रहकर अपने लिए एक उपयुक्त माहौल प्राप्त किया । ‘ रत्नाकर जी ‘ की काव्य प्रतिभा में युगीन प्रभाव तथा आधुनिकता का भी कुछ संस्पर्श है और वह समकालीन कवियों अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘ हरिऔध ‘ तथा मैथिलीशरण गुप्त की भाँति कथाकाव्य की रचना में दृष्टिगत होता है । इन्हीं कवियों की भाँति रत्नाकरजी ने अपने कथा – काव्यों में राजाश्रित कवियों की भाँति केवल भावुकता का ही प्रदर्शन नहीं किया , अपितु व्यापक सहृदयता का भी परिचय दिया है ।

प्रमुख रचनाएं

‘उद्धव शतक’ और ‘गंगावतरण’ रत्नाकरजी की दो सबसे प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। कृष्ण-काव्य के प्रसिद्ध उद्धव-गोपी वाद-विवाद को नवीन काव्य संरचना और प्रथम श्रेणी ‘मुक्तक’ में काव्य सचिव के साथ दिया गया है । ‘गंगावतारण’ में रत्नाकर जी के काव्य कौशल को अधिक गहराई से प्रदर्शित किया गया है । प्राचीन साहित्य, विशेषकर पुराणों के उचित ध्यान के आधार पर तैयार किए गए इस उपन्यास में मार्मिक क्षेत्रों की अच्छी तरह से पहचान मिली तथा उन पर विस्तार से चर्चा की गई है । यह सौंदर्य रत्नाकरजी के मुक्तक रचनाओं के संग्रह में और भी अधिक स्वतंत्र रूप से देखा जाता है, जैसे ‘श्रृंगार लहरी,’ ‘गंगा लहरी,’ ‘विष्णु लहरी,’ ‘रत्नाष्टक’ आदि ।

रीतिकालीन अलंकारवादियों से रत्नाकरजी की विशेषता यह है कि उनकी भाँति यह सौन्दर्य – विधान बौद्धिक व्यायाम की सृष्टि नहीं वरन आन्तरिक प्रेरणा से सहज प्रसूत है । अपने स्वतंत्र कार्यों में रत्नाकरजी पारंपरिक कवियों से आगे निकल गए, जिसमें उन्होंने पौराणिक मुद्दों से लेकर देशभक्ति की वर्तमान भावना तक के विषयों को छुआ है ।

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निष्कर्ष

हिन्दी जगत में आज शायद ही कोई होगा जो यह न जानता हो कि महान कवि रत्नाकर ब्रजभाषा के परम प्रेमी और मर्मज्ञ थे। वे ब्रजभाषा के लिए लंबे समय तक ब्रज में रहे और ब्रजभाषा साहित्य का अध्ययन किया। कवि घनानन्यादि ने ब्रजभाषा में साहित्यिक एकता लाने का कार्य किया, जिसे आचार्य केशव ने शुरू किया और महाकवि बिहारी लाल ने जारी रखा, और बाद में रत्नाकर जी द्वारा समाप्त किया गया। “अर्थात् रत्नाकर जी ने ब्रजभाषा को वह सटीक नियमितता दी है, जो साहित्यिक भाषा के लिए मौलिक है।” रत्नाकर जी के उत्कृष्ट कवि उनके स्पष्ट भाषण, कविता की शुद्धता, अलंकरण की छटा, ताजा और विशिष्ट उच्चारण में परिलक्षित होते हैं।”

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