railway platform ka ek drishya par nibandh
भूमिका
भीड़ तो बहुत देखी – सुनी है। उसकी रेल – पेल भी बहुत झेली है ; पर ओह ! भारतीय रेलवे स्टेशनों के प्लेटफार्म , वहाँ की गहमागहमी और उमड़ती भीड़ ! सचमुच रोंगटे खड़े हो जाते हैं यह सब देख – सुनकर !
पता नहीं लोग बगैर लाइन आकर टिकट क्यों और कैसे ले लेते हैं ! बड़ी मुश्किल से चिल्ला – चिल्लाकर लोगों को बगैर लाइन से टिकट न लेने देने और झगड़े मोल लेकर हमने टिकट खरीदा और फिर प्लेटफार्म की ओर अग्रसर हुए। आज मैं अपने मित्र रमेश को विदा करने के लिए आया था।
प्लेटफार्म पर भीड़
टिकट खरीदने की झंझट और छीना – झपटी की चर्चा करते हुए जब हम प्लेटफार्म पर पहुँचे , तो मैं आश्चर्यचकित रह गया ! ओह , इतनी भीड़ ! आखिर इतनी जनता आयी कहाँ से और जायेगी कहाँ ? इतनी भीड़ कि पाँव रखकर चलना भी कठिन हो रहा था। परन्तु स्टेशन के कार्यकर्ता अपना कार्य उसी प्रकार कर रहे थे , जैसे कि हमेशा हुआ करता था ! हम धीरे – धीरे ठेलमपेल से बचते हुए आखिर उस प्लेटफार्म पर पहुँचे , जहाँ से हमारी गाड़ी को रवाना होना था।
वहाँ भी अजब हाल था ! प्लेटफार्म पर लोग इस प्रकार बिस्तर लगाये हुए बैठे थे , मानो वे अपने घर की बैठक में आराम फरमा रहे हैं। कई महाशय खाना खाने में लगे थे और कुछ समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में मग्न थे , मानो उन्हें इस दुनिया की सुध ही नहीं थी। कुछ लोग वाद – विवाद में व्यस्त थे। लोगों की बातचीत के साथ मिलकर खोमचे वालों की आवाज़ों ने एक अच्छा – खासा शोर – शराबा और हंगामा खड़ा कर रखा था। इधर – उधर भटकते हुए हम कहीं बैठने का स्थान ढूँढ़ रहे थे , ताकि कुछ आराम से गाड़ी आने की प्रतीक्षा की जा सके। बड़ी मुश्किल से एक महाशय से अनुनय – विनय करने पर थोड़े – से स्थान की प्राप्ति हुई , जिस पर हमने चादर बिछाकर अपना आसन जमाया।
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एक वृद्ध का चिल्लाना
अभी हम बैठे ही थे कि एक महाशय चिल्लाते – चिल्लाते इधर – उधर भागते दिखाई दिये। पूछने पर मालूम हुआ कि कुली को सामान दिया और आप उसके पीछे थे कि कहीं भटक गये। उनका सारा सामान उस कुली के सिर पर था , अब उसी को ढूँढ़ रहे थे। बेचारे बहुत परेशान थे। वृद्ध थे और सूरत से कुछ दुःखी भी प्रतीत होते। मुझे उन पर बहुत दया आयी। कुछ करना चाहा कि तभी लाउडस्पीकर से यह कहा जाने लगा कि एक कुली किसी सज्जन का सामान ले जा रहा था कि वह सज्जन कहीं भटक गये हैं। वह सज्जन जहाँ पर भी हों अपना सामान पूछताछ कार्यालय से प्राप्त कर लें। अक्सर कुलियों द्वारा सामान गायब कर देने की बातें सुनते रहते थे ; अतः मैंने यह सुनकर उस ईमानदार कुली को मन ही मन साधुवाद दिया। railway platform ka ek drishya par nibandh
भगदड़ का दृश्य
तभी देखा , दूसरे फ्लेटफार्म पर एक गाड़ी आयी। गाड़ी का आना था कि प्लेटफार्म पर भगदड़ मच गयी। सामान उठाये हुए कुली और मुसाफिर सभी ऐसे भागे जा रहे थे , मानो वानर सेना लंका पर चढ़ाई करने जा रही हो। चाय गर्म , पूरी गर्म , पान – बीड़ी – सिगरेट आदि के नारे भी पूरे जोरों से लगाये जाने लगे थे। कोई सीट लेने की जल्दी में था , कोई सामान ठेल – ठालकर अन्दर रखने में व्यस्त था। इस प्रकार यह सब ताँता दस मिनट तक लगा रहा। किसी को कुछ सुध – बुध नहीं थी। उनका लक्ष्य केवल यही लगता था- गाड़ी में स्थान पाना और गाड़ी से उतरने वालों का लक्ष्य था कि अपना सामान ठीक – ठाक नीचे उतार लेना। हमें पहली बार अनुभव हुआ कि आजकल यात्रा करना भी कोई आसान कार्य न होकर बड़ी हिम्मत और जोखिम का कार्य है।
गाड़ी का प्रस्थान
वह सब घट ही रहा था कि अचानक घण्टी बज उठी। सूचना मिली कि सिगनल हो चुका है और जिस गाड़ी पर हमें जाना था , वह गाड़ी आ रही है। लोग पहले से ही सामान लेकर खड़े हो गए। सब सतर्क थे। सब ऐसे तैयार खड़े थे , मानो सेनानायक के आदेश शत्रु की सेना पर एक साथ धावा बोलना हो। तभी गाड़ी आयी और शोर मचना शुरू हुआ। कोई अपने बच्चे को पकड़े हुए था और कोई आवाज़ें देने में व्यस्त था।
गाड़ी खड़ी हुई और भाग – दौड़ शुरू हुई। मोर्चा तो हमको भी जीतना था , हम भी आगे बढ़े। बहुत भाग – दौड़ की ; परन्तु स्थान मिलता दिखायी न दिया। एक जगह हमें स्थान तो खाली दिखायी दिया , पर वहाँ दरवाज़े में सामान अटका हुआ था। बहुत कोशिश की कि सामान या तो अन्दर पहुँचे या बाहर , परन्तु सब निष्फल। तब तक गाड़ी का सिगनल डाउन भी हो गया। हम घबराए।
हमारे मित्र को लटकने के लिए भी स्थान न मिल पाया था , इतनी भीड़ थी। सहसा मुझे एक उपाय सूझा। डिब्बे की खिड़की के द्वारा अन्दर पहुँचा जाए जगह अपने – आप बन जायेगी। सो , हमने मित्रवर को उठाकर खिड़की के रास्ते अन्दर पहुँचाना चाहा। उन्होंने भी बहुत कोशिश की। उनका सिर ही अभी अन्दर पहुँचा था कि गाड़ी चल दी। बड़ी मुश्किल से उनका आधा शरीर ही अन्दर पहुंचा था कि गाड़ी प्लेटफार्म से नीचे उतर चुकी थी। जगह उनको मिली या नहीं , वहीं जानते होंगे। हम उन्हें इस प्रकार की अनोखी विदाई देकर राम – राम करते घर वापस आ गये। आज भी उस दिन की याद आने पर रोंगटे काँप उठते हैं। सो चाहकर मैं रेल में यात्रा करने का साहस जुटा नहीं पाता।