सत्संगति का महत्व पर निबंध | satsangati ka mahatva par nibandh

satsangati ka mahatva par nibandh

प्रस्तावना

महाकवि तुलसीदास ने सत्संगति का प्रभाव बतलाते हुए कहा है:-
‘शठ सुधरहिं सत्संगति पाई , पारस परस कुधातु सुहाई। ‘
चौपाई का अर्थ- मूर्ख (धूर्त या दुष्ट) सज्जनों की संगति पाकर सुधर जाता है जिस प्रकार पारस पत्थर छूकर लोहा भी सोना हो जाता है। जब दुष्ट भी सत्संगति के प्रभाव से सर्वश्रेष्ठ महान बन जाता है , साधारण पुरुषों का तो कहना ही क्या है ? सत्संगति दो शब्दों से मिलकर बना है – सत् और संगति। इसमें समास होने के कारण इसका अर्थ है सत् अर्थात् सत्पुरुषों की संगति। जो पुरुष हानि लाभ की चिन्ता न करके दूसरों के हित में लगे रहते हैं वे सत्पुरुष कहे जाते हैं। इन सत्पुरुषों के साथ रहना या इनके चरित्र से प्रेरणा प्राप्त करना ही सत्संगति कहा जाता है।

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लाभ – (क) आत्म संस्कार

सत्संगति का प्रभाव महान है। इसके प्रभाव से दुष्ट भी श्रेष्ठ बन जाते हैं , पापी भी पुण्यात्मा हो जाते हैं , दुराचारी भी सदाचारी हो जाते हैं। कहने का भाव यह है कि सत्संगति के प्रभाव से मनुष्य की आत्मा शुद्ध हो जाती है , उसके अवगुण दूर हो जाते हैं और वह आनन्द विभोर होकर आदर्शोन्मुख हो जाता है। संत ऋषियों की संगति से वाल्मीकि आदि कवि बन गये। गांधीजी के प्रभाव से अनेक पुरुष सुधर गये थे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्संगति की प्रशंसा में कहा :-

” तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिय तुला इक संग।
तूलि न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग। “

(ख) ज्ञान तथा अनुभव की वृद्धि

सज्जन ज्ञान के भण्डार होते हैं। उनकी आत्मा , मन और बुद्धि विशाल होती है। उनके साथ रहनेवाले भी उनके ज्ञान तथा अनुभव से अपने ज्ञान और अनुभव की वृद्धि कर लेते हैं। ज्ञान और अनुभव की प्राप्ति से जीवनयापन में सुविधा रहती हैं।

(ग) सुख की प्राप्ति

सत्संगति से मनुष्य दुर्गुणों से दूर रहकर सद्गुणी बन जाता है। सद्गुणों के प्रभाव से जीविका उपार्जन में सुविधा रहती है और उसे सुख की प्राप्ति होती है। सत्पुरुष सदा ही अपने साथियों के दुःखों को दूर कर सुख देते हैं। अतः सत्संगति करनेवाले को सुख की प्राप्ति होती है।

(घ) यश तथा सम्मान की प्राप्ति

सत्संगति के प्रभाव से मनुष्य श्रेष्ठ तथा सद्गुणी बन जाता है। श्रेष्ठ तथा सद्गुणी पुरुष का यश सर्वत्र फैल जाता है और सब उसका सम्मान करते हैं।

(ङ) धैर्य की प्राप्ति

आपत्ति के समय सत्पुरुष अपने साथी को धैर्य बंधाते हैं , उसकी सहायता करते हैं और स्वयं साथ रहकर उसकी आपत्ति को दूर करते हैं। इस प्रकार सत्संगति करनेवाले पुरुष के हृदय में आशा और धैर्य का संचार होता है।

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(च) चरित्र निर्माण

सत्संगति के प्रभाव से मनुष्य का चरित्र आदर्श बन जाता है। किशोरावस्था तक तो चरित्र निर्माण के लिए सत्संगति की सर्वाधिक आवश्यकता है। वास्तव में सत्संगति से जितने लाभ हैं , उनका वर्णन करना असम्भव है। संस्कृत के किसी कवि ने कहा है:-

“जाड्यं धियो हरित सिञ्चति वाचि सत्यं , मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति , सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम्॥”

सत्संगति बुद्धि की मूर्खता को हरती है , वाणी में सत्यता को सींचती है , मान की उन्नति करती है , पाप को दूर करती है , चित्त को प्रसन्न करती है और दिशाओं में कीर्ति फैलाती है।

कुसंगति से हानि

सत्संगति से जितने लाभ हैं कुसंगति से उतनी ही हानियाँ हैं। अच्छे से अच्छे पुरुष भी दुष्टों की संगति में रहने से नीच तथा पापी बन जाते हैं। कहा भी है:-

” कबिरा संगति साधु की , हरै और की व्याधि।
ओछी संगति क्रूर की , आठों पहर उपाधि ॥ “

दुष्टों की संगति में रहने से सदा कष्ट मिलते हैं। जुवारियों और चोरों के साथ रहनेवाले साधारण पुरुष भी उनके साथ जेल चले जाते हैं। रावण ने सीता को चुराया था किन्तु उसके पास रहनेवाला समुद्र बाँधा गया।

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निष्कर्ष

उक्त कथनों से स्पष्ट है कि मानव जीवन की सर्वांगीण उन्नति के लिए सत्संगति अति आवश्यक है और कुसंगति त्याज्य है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ठीक ही कहा है- “कुसंगति का ज्वर सबसे भयानक होता है।” किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैर में बँधी चक्की के समान होगी जो उसे दिन – प्रतिदिन अवनति के गढ़ में गिराती जायेगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देनेवाली बाहु के समान होगी , जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जायेगी। ” अतः हमें कुसंग से दूर रहना चाहिए।

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