vidyarthi jeevan par nibandh
भूमिका
प्राचीन भारतीय इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वजों ने जीवन को सुव्यवस्थित ढंग से बिताने के लिए इसे चार भागों में बाँटा था- ब्रहचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ और सन्यास। इनकी महत्ता का प्रतिपादन करने के लिए उन्होंने इसकी आवश्यकता को सर्वोपरि समझते हुए इन्हें आश्रम का नाम दिया था। मानव जीवन का प्रथम सोपान ब्रह्मचर्य आश्रम अर्थात विद्यार्थी जीवन ही है।
जीवन का स्वर्ण काल
मनुष्य का सर्वाधिक श्रेष्ठ काल विद्यार्थी जीवन है। इस समय का सदुपयोग कर मनुष्य अपने जीवन को सुखमय बनाने का सफल प्रयत्न कर सकता है। इस समय विद्यार्थी पर भोजन , वस्त्र आदि के चिन्ता का कोई भार नहीं होता। उसका मन और मस्तिष्क निर्विकार होता है। इसके शरीर और मस्तिष्क की सभी शक्तियां विकासोन्मुख होती है। इस स्वर्ण काल में उसके लिए केवल एक ही कार्य होता है और यह अपनी सम्पूर्ण प्रवृत्तियों को विद्या के अर्जन की ओर लगाना है।
विद्यार्थी जीवन के उद्देश्य
विद्यार्थी शब्द का अर्थ है- विद्या का अर्थी अर्थात विद्या को चाहनेवाला , किन्तु उसका एकमात्र उद्देश्य विद्या प्राप्त कर ही नहीं अपितु विद्यार्थियों को चरित्र निर्माण , शारीरिक तथा मानसिक उन्नति और सद्गुणों की प्राप्ति की ओर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। इस प्रकार विद्यार्थी जीवन के प्रधानतः तीन उद्देश्य हो जाते हैं :- (क) विद्या प्राप्ति , (ख) चरित्र निर्माण , (ग) शारीरिक तथा मानसिक विकास ।
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विद्या प्राप्ति
विद्या से तात्पर्य केवल पुस्तकीय ज्ञान से नहीं है। विद्यार्थी को अपने चारों ओर की प्रकृति की सुरम्य छटा को आंख खोलकर देखना चाहिए। ऐसा करने से उसके ज्ञान में विविधता और उनके अवलोकन में सूक्ष्मदर्शिता आ जाती है। पुस्तकों में वह जिन वर्णों को पढ़ता है , उन्हें प्रकृति में साकार देखकर उसका मन आनन्द विभोर हो जाता है और उसके हृदय में स्वभाव से ही दिव्य गुणों का विकास होने लगता है। विद्या मानव के लिए सर्वोत्तम है। अतः विद्या की प्राप्ति में विद्यार्थी को कभी आलस्य नहीं करना चाहिए। इनकी प्राप्ति के लिए बड़े से बड़ा त्याग और कठिन परिश्रम करने के लिए तैयार होना चाहिए।
चरित्र निर्माण
यों तो मानव मात्र के लिए चरित्र निर्माण की आवश्यकता होती है , किन्तु विद्यार्थी के लिए तो इसकी प्रधान आवश्यकता है। श्रेष्ठ के अभाव में विद्या-विभूषित मनुष्य को भी कोई आदर की दृष्टि से नहीं देखता। चरित्र के निर्माण के लिए विद्यार्थी को ‘ आत्म – संयमी ‘ होगा चाहिए। संयम के बिना विद्या को प्राप्त करना एक कठिन कार्य है। जिसका मन चंचल है , जो पढ़ते-पढ़ते आकाश में वायुयान की आवाज को सुनकर उसे देखने दौड़ पड़ता है , सिनेमा जानेवालों के आह्वान पर किताबों को फेंक कर उनके साथ हो लेता है , चाटवाले की घंटी की आवाज सुन उसे खाने के लिए दौड़ पड़ता है , वह क्या कभी पढ़ सकता है , कदापि नहीं।
चरित्र की श्रेष्ठता के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तथा मादक द्रव्यों के सेवन से दूर रहने की अति आवश्यकता है। सत्संगति के बिना चरित्र निर्माण का होना असम्भव है। दुष्टों की संगति अच्छे पुरुषों को भी अवनति के गर्त में गिरा देती है। शील , विनय , सदाचार, अनुशासनहीनता , बड़ों का आदर आदि ऐसे गुण हैं , जिनका होना एक विद्यार्थी के लिए आवश्यक है। विद्यार्थी जीवन ही इन गुणों के विकास का सर्वोतम अवसर है।
शारीरिक तथा मानसिक उन्नति
मस्तिष्क का विकास शरीर के विकास के बिना असम्भव है। व्यायाम तथा आसनों के प्रयोग शरीर को स्वस्थ रखने में बहुत योग देते हैं। स्वच्छ वायु में प्रातः और सायंकाल का भ्रमण जीवन शक्ति को बढ़ाता है और चित्त को प्रफल्लित रखता है। हमारे प्राचीन शास्त्रों ने चरित्र गठन के लिए विद्यार्थी में निम्न पाँच लक्षणों का होना अनिवार्य बताया गया है:-
काक चेष्टा बकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च । अल्पाहारी , गृहत्यागी , विद्यार्थी पञ्चलक्षणः ||
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निष्कर्ष
उक्त विवरण से स्पष्ट है कि विद्याथों का जीवन बड़ा ही उत्तरदायित्व पूर्ण है। इस काल में बालक को सदा ही सावधान तथा सचेष्ट रहना पड़ता है। वह चैन की वंशी नहीं बजा पाता। सुख विद्या का बैर है। एक को चाहनेवाले को दूसरे की प्राप्ति नहीं होती। संस्कृत के किसी कवि ने कहा है:-
सुखार्थिनः कुतो विद्या , कुतो विद्यार्थिनः सुखम्। सुखार्थी वा त्यजेत् विद्यां, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्॥
यदि भारतीय विद्यार्थी , विद्यार्थी जीवन की श्रेष्ठता को समझकर उसे आदर्श बनाने की ओर उन्मुख हो जायेंगे, तो वह दिन दूर नहीं है , जब वे अपने को सत्यम् , शिवम् और सुन्दरम् का लक्ष्य प्राप्त कर देश की चहुमुखी प्रगति कर सकेंगे।