uchit shiksha paddti per nibandh
भूमिका
यदि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति आजीविका प्राप्त न कर सके तो वह शिक्षा निरर्थक है। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का वर्तमान व भविष्य सुरक्षित हो , तभी शिक्षा नीति को सार्थक माना जा सकता है। यदि भारतीय शिक्षा पद्धति की चर्चा की जाए , तो वह आज के संदर्भों में अनुकूल नहीं है। जीवन के कई वर्ष रट्टा लगाने की शिक्षा में बीत जाते हैं। व्यक्ति साक्षर अवश्य हो जाता है , किंतु विषय विशेष का ज्ञाता नहीं बन पाता।
वर्तमान शिक्षा पद्धति
वर्तमान शिक्षा पद्धति ने हमें बच्चों को जीवन शैली , संस्कृति व जीवन मूल्यों से तो अलग कर ही दिया है , सामान्य एवं व्यावहारिक जीवन का ज्ञान देने में भी वह सक्षम नहीं हो पा रही है। व्यक्ति शिक्षा के नाम पर सनद व उपाधि भर प्राप्त कर लेता है और शिक्षित होने का व्यक्ति में मिथ्या अहंकार आ जाता है। इस कारण शिक्षा पाने के बाद भी व्यावहारिक जीवन में व्यक्ति उसका उपयोग नहीं कर पाता। अतः व्यक्ति अक्षर ज्ञान ही प्राप्त कर पाता है। उस अक्षर ज्ञान की कोई भूमिका नहीं।
लार्ड मैकाले द्वारा चलाई इस शिक्षा पद्धति ने शिक्षार्थी से भारतीयता ही नहीं छीनी , उससे उसकी ऊर्जा , श्रम करके आगे बढ़ पाने की मानसिकता भी छीन ली। उसे महज नौकरी से प्राप्त होने वाली आय की इच्छा का गुलाम बना दिया है , फिर चाहे वह आमदनी एक क्लर्क या चपरासी बन कर ही क्यों न मिले।
दोष
वर्तमान शिक्षा पद्धति का जन्म ही शासन चलाने के लिए कुछ भारतीय लिपिक यानी क्लर्क प्राप्त करने के लिए किया गया था। बेशक तत्कालीन शासकों की आवश्यकता के अनुसार इस पद्धति का कुछ उद्देश्य अवश्य रहा होगा , किंतु आज निश्चित रूप से इसका किसी भी प्रकार का औचित्य शेष नहीं रह गया। यह हमारी वर्तमान आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए निरर्थक सिद्ध हो चुकी है , इसने हमारे मन – मस्तिष्क तक को अपाहिज बना दिया है। हमारी आशा तक को प्रदूषित कर मात्र क्लर्की पाने तक सीमित करके रख दिया है। इसी कारण स्वयं को शिक्षित कहने – समझने वाला नौजवान परिश्रम से जी चुराने व व्यावहारिक जीवन की सच्चाइयों से भागने वाला बन कर रह गया है।
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उद्देश्य
सच है कि शिक्षा का उद्देश्य यह नहीं होता कि वह व्यक्ति को सच्चाई से दूर करके रख दे। शिक्षा से कौशल अना चाहिए। कौशल प्राप्त व्यक्ति नौकरी की प्रतीक्षा नहीं करता। वह स्वयं का कारोबार कर सकता है , जो उसके कौशल की बुनियाद पर खड़ा होता है। इस प्रकार की शिक्षा पद्धति का क्या लाभ कि जीवन के 18-19 वर्ष पश्चात शिक्षार्थी को जो डिग्री – डिप्लोमा मिलता है , उससे वह रोजगार प्राप्त नहीं कर पाता। इस कारण वह हताशा का शिकार हो जाता है।
पढ़ – लिख कर भी वह बेरोजगार ही बना रहता है। फिर माता – पिता की ओर से भी उसे फटकार मिलती है। सामान्य कार्य करना उसे शान के विरुद्ध लगता है। इस प्रकार के शिक्षित युवा कुंठाग्रस्त होकर नशों की गिरफ्त में चले जाते हैं। फिर उनकी विवेक क्षमता पर भी प्रश्नचिन्ह लगते हैं और धन कमाने के लिए वे अपराध करने से भी हिचक महसूस नहीं करते।
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निष्कर्ष
शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात व्यक्ति में आत्मविश्वास आना चाहिए , जिससे वह जीवन के स्वप्नों की पूर्ति कर सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है। आशय यह है कि स्वाधीन भारत के लिए किस प्रकार की शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है? कैसी शिक्षा समय के अनुसार लोक – हित साधन कर सकती है? इस ओर कतई कोई ध्यान नहीं दिया गया। इसी कारण आज प्राथमिक आवश्यकता वर्तमान ढांचे को बदल , उसे समय एवं उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने की है। शिक्षा को बुनियादी तौर पर व्यवसायोन्मुख बनाना भी जरूरी है। उसे सस्ती , नैतिक उत्थान करने तथा अपनापन प्रदान कर पाने में समर्थ बनाना भी अत्यंतावश्यक है। स्वतंत्रता प्राप्त किए 67 वर्ष हो चुके हैं , फिर भी सार्थक शिक्षा नीति नहीं बन पाई है। युवा देश का भविष्य है। अतः उसके स्वप्नों की पूर्ति होना आवश्यक है।