विद्यासागर नौटियाल पर निबंध | vidyasagar nautiyal per nibandh

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भूमिका

हिंदी साहित्य में विद्यासागर नौटियाल एक ऐसे कथाकार के रूप में अपनी पहचान बनाते हैं, जिसने अपने समूचे रचना कर्म में पहाड़ के दुख, दर्द, विडंबनाएं, त्रासदियां, प्राकृतिक और मनुष्यकृत आपदाओं आदि के साथ लोक संस्कृति को उसके जीवंत रूप में रचा। हिमालय का एक खास क्षेत्र टिहरी जनपद उनके यहां अपनी संपूर्णता में अभिव्यक्ति पाता है। वहां का जन जीवन, लोक विश्वास, इतिहास, परंपराएं और इनके साथ वर्तमान शासन व्यवस्था से उपजी समस्याएं भी उनके कथा साहित्य का विषय बनीं। यही टिहरी, आज इतिहास का हिस्सा हो चुका है। कुछ वर्ष पहले तक यह जीता जागता, जीवन की हलचलों में भरा वर्तमान था , आज अपने भूगोल से विच्छिन्न होकर बड़े बांधों के निर्माण प्रक्रिया की भेंट चढ़ चुका है। इस दृष्टि से यह उनका अनुभवों की प्रामाणिक भूमि भी थी।

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जन्म

विद्यासागर नौटियाल का जन्म 29 सितंबर 1933 ई० को उत्तर प्रदेश के एक सामंती राज्य टिहरी – गढ़वाल में भागीरथी नदी के तट पर बसे गाँव मालीदेवल में हुआ था। उनके पिता का नाम नारायण दत्त था जो एक वन अधिकारी थे। उनकी माता का नाम रत्ना था जो एक घरेलू महिला थी। नौटियाल की मृत्यु 18 फरवरी 2012 ई० को बेंगलुरु में हुई।

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शिक्षा

रियासत के विद्यालय विहीन सुदूर जंगलों में अपने घर पर उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा माता-पिता से प्राप्त की। बाद में टिहरी, देहरादून तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आगे की शिक्षा प्राप्त किये।

कर्मक्षेत्र

टिहरी गढ़वाल रियायत के विरूद्ध जो प्रजा मंडल संगठित हुआ था , उसी आंदोलन के साथ जुड़कर नौटियाल जी ने अपने कर्मशील जीवन की शुरुआत की थी। इस आंदोलन का प्रभाव उन पर आजीवन रहा। उनकी रचनाएं भी इसके गहरे प्रभाव से अछूती नहीं रहीं। इस आंदोलन में शामिल लोगों को ‘बागी’ करार दिया गया था। यह पूरी ऐतिहासिक परिघटना उनके ललित निबंधों के संग्रह ‘बागी टिहरी गाए जा’ में देखा जा सकती है। बाद में उन्होंने कम्यूनिस्ट पार्टी के उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव भी जीता। विधायक बनने के बाद राजनीतिक जीवन में उनकी सक्रियता बढ़ती गयी और रचनात्मक क्षेत्र में कम होती गई। लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब पार्टी से उनका मत भिन्न हो गया।

टिहरी बांध के मुद्दे पर पार्टी से हुए मतभेद से उनका नाता पार्टी से टूटा परंतु विचारधारा से बना रहा। विचारधारा का यह नितांत आग्रह उनकी रचनाओं में स्पष्ट ध्वनित हुआ है। 1980 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक के रूप में काम करते हुए उनके अनुभव क्षेत्र का विस्तार हुआ और अपने क्षेत्र की जनता को जिस तरह जानने समझने का अवसर मिला, उसे उन्होंने अपने रचनात्मक लेखन का विषय बनाया। उनके उपन्यास ‘भीम अकेला’ में उनके ऐसे ही सघन अनुभव व्यक्त हुए हैं।

साहित्य क्षेत्र में पदार्पण

नौटियाल जी 1950 के आस पास कथा जगत में प्रवेश करते हैं। उनकी पहली कहानी ‘भैंस का कट्या’ ने अपनी भिन्न संवेदनात्मक पृष्ठभूमि और उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र का नितांत आत्मीय चित्र देने के कारण पाठकों और बौद्धिकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। अपनी पहली ही कहानी से ध्यान खींचने वाले नौटियाल जी धीरे-धीरे अन्य क्षेत्रों में इतने व्यस्त होते हुए कि एक लंबे समय तक कथा जगत से अनुपस्थित हो गए। तीस वर्षों का लंबा समय पार करने के बाद नब्बे के दशक में एक बार फिर नौटियाल जी साहित्य में सक्रिय उपस्थिति दर्ज करते हैं। अत्यंत उत्साह और रचनात्मक ऊर्जा के साथ उन्होंने ढेरों कहानियां लिखीं।

तीन दशक बाद उनका पहला कहानी संग्रह ‘ टिहरी की कहानियां ‘ नाम से 1984 में प्रकाशित हुआ। अपने इस संग्रह से एक बार पुनः उन्होंने साहित्य जगत का ध्यान आकर्षित किया। मुख्यधारा से अलग थलग पड़े गढ़वाल के पहाड़ी जीवन को उन्होंने मुख्यधारा के साहित्य में प्रतिष्ठित किया। संकलन की सभी कहानियां टिहरी के जन जीवन को केंद्र में रख कर लिखी गई थीं। बाद की रचनाओं में भी यह केंद्र नहीं बदला बल्कि और अधिक प्रखर रूप से विस्तार पाता गया।

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प्रमुख कृतियाँ

पहली कहानी मूक बलिदान – 1949 ई०
भैंस का कट्या – 1954 ई०

उपन्यास— उलझे रिश्ते (1958)
भीम अकेला (1995 ई०)
सूरज सबका है (1997 ई०) तथा
उत्तर बायां है (2003 ई०)

कथा-संग्रह—टिहरी की कहानियाँ (1984ई०)
टिहरी की कहानियाँ (2000 ई०)
सुच्ची डोर (2003 ई०)
यात्रा-वृत्तान्त, संस्मरण, डायरी अंश तथा वैचारिक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

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निष्कर्ष

विद्यासागर नौटियाल हिंदी साहित्य के एक प्रमुख कथाकार हैं। विशिष्ट कथाओं के कारण विद्यासागर नौटियाल को पहाड़ का प्रेमचंद भी कहा जाता है। उनका पूरा लेखन ही जनपक्षधर लेखन बना रहा है। राजशाही व्यवस्था और आजाद भारत की शासन प्रणाली दोनों पर ही उन्होंने अपनी लेखनी चलाई। इस तरह उनके लेखन हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

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