चलचित्र (सिनेमा) पर निबंध :- hindi essay on cinema

चलचित्र (सिनेमा) पर निबंध :- hindi essay on cinema

भूमिका

आज के मानव का जीवन अत्यंत व्यस्त है और दिनों-दिन व्यस्त से व्यस्ततम होता जा रहा है। रोजी-रोटी की व्यवस्था में निरंतर भाग रहा है। जीवन की प्रतिस्पर्धा में उसे एक क्षण की भी फुर्सत नहीं है। ऐसी दशा में निरंतर कार्य करते रहने के कारण मानव जीवन अत्यंत शुष्क तथा नीरस होता जा रहा है।

Essay on cinema

अतः आज मनुष्य को जरूरत पड़ती है किसी ऐसे साधन की जो उसमें पुनः स्फूर्ति का संचार कर दे, उसके मन में थकान और काम के तनाव को कम कर दें तथा उसकी थकान मिटा कर उसे पुनः कार्य करने के लिए तैयार कर दे। यह कार्य करने में केवल मनोरंजन ही सक्षम है। इन साधनों में प्रमुख साधन है—– रेडियो ,टेलीविजन, चलचित्र आदि। इन उपर्युक्त साधनों में चलचित्र ही प्रमुख साधन है जो मानव मन को घंटे-दो-घंटे के लिए कल्पना लोक में ले जाकर मन को शांति दे सके।

इतिहास

चलचित्र का आविष्कार 19वीं शताब्दी में अमेरिका के निवासी टामस एल्वा एडिसन ने किया। इन्होंने सन् 1890 में इसको हमारे सामने प्रस्तुत किया था। पहले-पहल सिनेमा लंदन में कुमैर नामक वैज्ञानिक द्वारा दिखाया गया था। भारत में चलचित्र सन् 1913 में दादा साहब फाल्के के द्वारा बनाया गया, जिसकी बहुत प्रसंशा हुई थी। फिर इसके बाद बहुत सारे चलचित्र बनते चले गए। लेकिन यह बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि भारत का स्थान चलचित्र के महत्व की दिशा में विश्व में अमेरिका के बाद दूसरा है। (चलचित्र (सिनेमा) पर निबंध :- hindi essay on cinema)

चलचित्र के प्रभाव

सिनेमा के बढ़ते हुए प्रभाव से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी है कि सिनेमा हमारे जीवन का एक अत्यंत आवश्यक अंग तो बन चुका है। अब सिनेमा का रूप केवल काली और सफेद तस्वीरों तक सीमित न होकर विविध प्रकार की रंगीन और आकर्षक चीजों में ढलता हुआ, जन- मन की पसंद बन चुका है। सच कहा जाए तो सिनेमा अपनी इस अद्भुत विशेषता के कारण समाज और संसार को अपने प्रभाव में डाल रहा है। सिनेमा का प्रभाव कहीं भी देखा जा सकता है। यहाँ तक देखा जाता है कि लोग भरपेट भोजन की चिंता न करके पैसा बचाकर सिनेमा देखने के लिए जरूर जाते हैं।

मनोरंजन का माध्यम

चलचित्र स्वस्थ और स्वच्छ मनोरंजन के साथ-साथ जन जागरण और जनता के शिक्षण का भी अच्छा माध्यम है और आगे भी बना रह सकता है। बस आवश्यकता है पहले के निर्माता- निर्देशकों की तरह आदर्श दृष्टि और कलात्मक त्याग की। जो यह कहा जाता है कि जनता जो चाहती है,चलचित्रकार वही दिखा रहे हैं, सत्य और वास्तविकता से परे हैं। आज भी जब कोई अच्छी कहानी, अच्छे गीत-संगीत को आधार बनाकर साफ-सुथरी फिल्म बनकर आती है, आम जनता उसे हाथों-हाथ लेती है। उसे देखती और उसकी उचित सराहना करती है। हो सकता है कि उस प्रकार की फिल्मों पर अंधाधुन्ध आय न होती हो, पर घाटे का सौदा कतई नहीं रहता, यह कई बार स्पष्ट हो चुका है।

लाभ

सिनेमा पैसा कमाने का एक अच्छा साधन है। भारत में फिल्म जगत को उद्योग का दर्जा प्राप्त है। सिनेमा को बनाने से लेकर वितरण और प्रदर्शन तक हर स्थान पर व्यावसायिकता का वर्चस्व है। सिनेमा घरों में व्यापारिक विज्ञापन भी खूब दिखाए जाते हैं क्योंकि वहाँ काफी व्यक्तियों का समूह होता है। दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाली फिल्मों में आज फिल्म से अधिक प्रस्तुतीकरण विज्ञापनों का ही होता है। एक ओर यह स्वयं उच्च कोटि का व्यापार है तो दूसरी ओर इसकी सहायता से व्यापारी वर्ग अपने विज्ञापन देकर अपने व्यापार को बढ़ाने में सफलता प्राप्त करते हैं।

हानि

सिनेमा से जहाँ इतने लाभ हैं वहाँ इसमें हानियाँ भी बहुत है। स्वास्थ्य की दृष्टि से सिनेमा आँखों के लिए हानिकारक है। अर्थ की दृष्टि से देखें तो इसकी लत व्यक्ति का धन और समय दोनों बर्बाद करता है। अश्लील, गंदे और सस्ते उत्तेजना पूर्ण चित्रों से चरित्र का हनन भी होता है। दुर्भाग्यवश आज चलचित्र का कथानक श्रृंगारप्रधान होता है जिसमें कामुकता बढ़ाने वाले अश्लील दृश्य,संवाद तथा गीत होते हैं। धोखाधड़ी, फैशन, शराब, जुआ, मार-धाड़, हिंसा, अपहरण, बलात्कार, तस्करी, लूटपाट आदि समाज विरोधी दृश्यों को देखकर आज का युवक उच्छृंखल तथा अनुशासनहीन हो गया है।

निष्कर्ष

सिनेमा के धनात्मक और ऋणात्मक पहलू पर सोचने पर पता चलता है कि सिनेमा से यदि लाभ है तो हानि भी कम नहीं है। सिनेमा को बदनाम करने वाले सबसे अधिक आपत्तिजनक विज्ञापन हैं जिसमें उत्तेजक चित्रों के माध्यम से वस्तुओं के विज्ञापन दिखाए जाते हैं। आजकल अनेक फिल्में बनी है जो आज की भ्रष्ट राजनीति का पर्दाफाश कर समाज को उससे सावधान रहने का संदेश दे रही है। इस प्रकार यदि हम सिनेमा का उचित प्रयोग करें तो वह दोषपूर्ण नहीं हो सकता।

आज की माँग है कि छात्रों को अपने देश की सभ्यता, संस्कृति एवं गौरवपूर्ण परंपरा के दर्शन सिनेमा के माध्यम से कराए जाएं। अच्छे चलचित्रों का निर्माण करके उनके द्वारा उच्च सांस्कृतिक, सामाजिक तथा नैतिक परंपराएँ दर्शकों के मन में डाली जाए। सैंसर को और भी कठोर रुख अपनाना चाहिए, जिनसे गंदी, सस्ती तथा कामुक फिल्में जनमानस में अश्लीलता, कामुकता तथा विलास की भावना को बढ़ावा न दे सकें तथा सिनेमा सच्चे अर्थों में एक वरदान सिद्ध हो सके।

(चलचित्र (सिनेमा) पर निबंध :- hindi essay on cinema)

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