छत्रपति शिवाजी की जीवनी|Chhatrapati Shivaji ki jivani

Chhatrapati Shivaji ki jivani

भूमिका

शिवाजी का जन्म उस काल में हुआ था, जब भारत देश में मुगल शासकों का राज्य था। उनके आतंक और अराजकता से भारत की हिंदू जाति त्रस्त थी। मुगलों के प्रति सबके मन में विरोध की ज्वाला दहक रही थी। आग सबके मन में थी।किन्तु नेतृत्व के अभाव में वह आग दबी जा रही थी। उसे सिर्फ हवा देने की आवश्यकता थी। जिसे आगे चलकर शिवाजी ने पूरा किया। हिंदुओं के सामने ही उनके आराध्य देवी – देवताओं की मूर्तियों तोड़ा जा था, उनका अपमान किया जा रहा था। लेकिन हिंदू कुछ भी कर पाने या कह पाने में असमर्थ थे। तब शिवाजी ने हिंदुओं की इस पतनशील दुरावस्था को गंभीरता के देखा और उसे दूर करने का दृढ़ निश्चय किया।

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जन्म

शिवाजी का जन्म 19 फरवरी 1630 ई. को पूना महाराष्ट्र से लगभग 80 किलोमीटर दूर शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। इनके पिता श्री शाहजी भोंसले थे। जो बीजापुर के शासक के यहाँ उच्च पद पर कार्यरत थे। इनकी माता का नाम जीजाबाई था। जो एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। उनके हृदय में दया और ममता की पवित्र धारा प्रवाहित होती थी। किंतु उनमें रणचंडी के समान भयंकर क्रोध भी था। जो किसी भी आततायी को भस्म कर सकता था। वह मुगलों के अत्याचार और हिंदू धर्म के अपमान से बहुत आहत थी। जब उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। तब उन्होंने यह निश्चय किया कि वे अपने पुत्र को इतना साहसी ,निडर , धैर्यवान और बलवान बनाएंगी, जो मुगलों के इस आतंक से हिंदू और हिंदुस्तान को निजात दिलाने के लिए कटिबद्ध हो।

शिक्षा-दीक्षा

जीजाबाई ने बचपन से ही बालक शिवाजी के जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी। उसके लिए उन्होंने बालक शिवाजी को धार्मिक पुस्तकों में वर्णित वीरों और देवताओं की कथाएँ सुनना शुरू कर दिया। जिसका प्रभाव शिवाजी के मन पर भरपूर पड़ा। उन्होंने रामायण और महाभारत की कथाओं के साथ-साथ महान योद्धाओं एवं वीर महापुरुषों की प्रेरणादायक गाथाओं को सुनाना आरंभ कर दिया। इससे बालक शिवाजी के अंदर स्वाभिमान और शौर्य- उत्साह की भावना कूट-कूटकर भर गयी।

बालक शिवाजी के मन में अपनी माता जीजाबाई के प्रति अपार श्रद्धा और विश्वास की भावना थी। शिवाजी अपनी माता को अपनी आराध्या मानते थे। जिससे माता जी का उत्साह बढ़ता ही गया। अत्यधिक उत्साहित और प्रेरित होने के कारण ही शिवाजी ने बाल्यावस्था से ही मल्ल युद्ध , भाले , बर्छे और बाण-विद्या की विभिन्न कलाओं को सीखना प्रारंभ कर दिया। अपनी मेधावी शक्ति के कारण बहुत थोड़े समय में ही शिवाजी ने युद्ध – विद्या की कला में निपुणता हासिल कर ली। शिवाजी के व्यक्तित्व को निखारने में इनके गुरु समर्थ श्री रामदास जी का भी बहुमूल्य योगदान रहा।

शिवाजी और औरंगजेब के बीच युद्ध

शिवाजी ने युद्ध में विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से बाल्यावस्था में ही समवयस्क बालकों का एक दल बनाकर कृत्रिम युद्ध-व्यूह की रचना करते थे। यद्यपि इनके पिता जी का इच्छा था कि वह बड़े होकर उनकी ही भाँति शाही सेना में कोई उच्च पद पर कार्य करें। किंतु शिवाजी के स्वतंत्र मन ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। बड़े होकर शिवाजी अपने प्रबल उत्साह और शौर्य से सैन्य दल बनाकर बीजापुर के दुर्गों पर ही धावा बोलने लगे। उन्होंने अपने इस प्रकार के प्रयास सिर्फ 19 वर्ष की अल्प आयु में ही शुरू कर दिया।

इस प्रकार वे कम आयु में ही अपार और अद्भुत शक्ति बढ़ा ली थी। इसी क्रम में उन्होंने 2 वर्षों के भीतर ही तोरण ,सिंह , पुरंदर आदि दुर्गों पर अपना अधिकार जमा लिया और मुगल सेना से भिड़ने का मन बना लिया। लेकिन मुगलों के पास विशाल सेना थी। उससे लड़ने में वीर शिवाजी की जान- माल की बहुत क्षति हुई। तब उन्होंने निश्चय किया कि इतनी बड़ी सेना से आमने सामने की लड़ाई बुद्धिमानी का कार्य नहीं है। इसलिए वे कुछ दिनों तक पहाड़ों में ही छिपकर छापामार युद्ध करने लगे। इससे मुगल सेना की बड़ी तबाही और सैन्य शक्ति की क्षति हुई।

औरंगजेब इन्हें “पहाड़ी चूहा” के नाम से संबोधित किया था। बीजापुर के शासक ने शिवाजी के इस कारनामे से क्षुब्ध होकर इनके पिताजी को कैद करवा दिया। पिताजी को मुक्त कराने के लिए शिवाजी ने युद्ध-यात्रा में परिवर्तन करके सबसे पहले अपने पिताजी को कैद से मुक्त कराया। फिर इसके बाद मुगल सेना से युद्ध किये।

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शिवाजी और अफ़जल खाँ के बीच युद्ध

बीजापुर के शाह ने शिवाजी को पराजित करने के लिए अपने सबसे बड़े योद्धा अफ़जल खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना को भेजा। अफजल खाँ शिवाजी के पराक्रम से भली-भाँति अवगत था। इसलिए वह शिवाजी का सीधा मुकाबला करने के बजाय पीछे से आक्रमण करना चाहता था। जब उसे ऐसा कोई अवसर प्राप्त नहीं हुआ, तो उसने कूटनीति और धोखाधड़ी का सहारा लिया। वह किसी भी तरह शिवाजी को पराजित करना चाहता था। इसलिए उसने छद्म वार्ता के द्वारा शिवाजी को अकेले मिलने का निमंत्रण दिया। शिवाजी के मिलने पर उसने अपनी तलवार से शिवाजी पर प्रहार किया। शिवाजी कुशल योद्धा थे। वे युद्ध के सभी गुणों से पारंगत थे। वे बड़ी फुर्ती से अफजल खाँ के तलवार के वार को बचाकर अपना बघनखा उसके पेट में घोंप दिया। जिससे अफजल खाँ की वहीं मृत्यु हो गई।

शिवाजी का शाइस्ता खाँ से युद्ध

अफजल खाँ की मृत्यु से उत्साहित होकर शिवाजी ने मुगलों पर धमाके के साथ आक्रमण किया। मुगल बादशाह औरंगजेब ने शिवाजी के आक्रमण को रोकने के लिए अपने मामा शाइस्ता खाँ के नेतृत्व में बहुत बड़ी सेना भेजी। शाइस्ता खाँ ने मराठा प्रदेशों को रौंद डाला। इसके बाद वह पूना पहुँच गया। शिवाजी ने अपने सैनिकों को रात के समय एक बारात में छिपाकर पूना पर आक्रमण कर दिया। शाइस्ता खाँ इस आक्रमण से डरकर भाग गया और उसका पुत्र मारा गया। इसके बाद शिवाजी ने सूरत को लूटकर करोड़ों की संपत्ति से अपनी राजधानी रायगढ़ को मजबूत कर लिया।

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शिवाजी को जयसिंह का आमंत्रण

शिवाजी के इस बढ़ते प्रभाव से मुगल बादशाह औरंगजेब बहुत चिंतित हो उठा। उसने उन्हें बंदी बनाने के उद्देश्य से राजा जयसिंह के माध्यम से शिवाजी को बुला भेजा। राजा जयसिंह का बुलावा सुनकर शिवाजी आमंत्रण को इनकार नहीं कर सके। किंतु राजा जयसिंह के यहाँ उनका यथोचित सम्मान नहीं होने पर शिवाजी क्रोधित हो उठे। औरंगजेब ने उन्हें बंदी बना लिया और कारागार में डाल दिया। शिवाजी बड़ी चालाकी से माली की फूल की टोकरी में बैठकर औरंगजेब को चकमा देकर जेल से बाहर निकल गए। उन्होंने पवित्रीकरण के लिए मुंडन कराकर काशी, जगन्नाथपुरी के तीर्थों का दर्शन करते हुए अपनी राजधानी रायगढ़ पहुँच गए। इसके बाद उन्होंने अपनी शक्ति का और विस्तार किया। उन्होंने मुगलों को अनेक बार परास्त किया। 50 वर्ष की आयु में सन 1680 में इनकी मृत्यु हो गई।

उपसंहार

वीर शिवाजी अपने विलक्षण राष्ट्रप्रेम, कुशल राजनीतिज्ञ और एक कुशल योद्धा के रूप में भारत के इतिहास में प्रसिद्ध हैं। ऐसी विलक्षण प्रतिभा कुदरत की देन होती है, जो पृथ्वी पर बार-बार जन्म नहीं लिया करते। इनमें अपनी जाति , अपने गौरव , अपने धर्म और मानवता के प्रति अपने कर्तव्य का पूरा ज्ञान था। स्त्रियों का सम्मान तो इनका परम धर्म था। यही कारण था कि गौहरबानू को इन्होंने ससम्मान मुगल खेमे में पहुँचाया। इस प्रकार वीर शिवाजी का नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित होने योग्य है।

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