शिक्षा और व्यवसाय पर निबंध | Shiksha aur vyavsay par nibandh

Shiksha aur vyavsay par nibandh

भूमिका

व्यवसाय का अर्थ है– रोजगार या काम-धंधा और शिक्षा का अर्थ है — ज्ञान। अपनी मूलभूत और स्वरूपगत अवधारणा में शिक्षा का अर्थ व्यवसाय नहीं, बल्कि एक मात्र अर्थ है— अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त करना। शिक्षा व्यक्ति को विविध विषयों का ज्ञान कराकर उसके मन-मस्तिक, इच्छा और कार्य शक्तियों का विकास तो करती ही है, उसके छिपे या सोए गुणों को उजागर कर एक नया आत्मविश्वास भी प्रदान करती है। इन सब बातों को लेकर या शिक्षा द्वारा इन सब बातों में संपन्न होकर व्यक्ति अपने लिए कोई भी इच्छित व्यवसाय चुन सकता है। उसमें सभी प्रकार की सफलताओं की संभावनाएँ लेकर प्रगति पथ पर निरंतर आगे भी बढ़ सकता है। कहा जा सकता है कि ऐसा करके शिक्षा अपने मूल प्रयोजन में स्वयंसिद्ध सफलता और सार्थकता प्राप्त कर लेती है।

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शिक्षा की आवश्यकता

व्यवसाय का अर्थ है– रोजगार। यों तो रोजगार और स्कूल-कॉलेजों की शिक्षा का परस्पर किसी भी प्रकार का सीधा संबंध नहीं है। अपने चारों ओर निरक्षर भट्टाचार्य को भी कुशल व्यवसाय बनते देखा-सुना जा सकता है। कई बार तो अनपढ़ अशिक्षित जन शिक्षितों, पढ़े-लिखों से भी कहीं बढ़कर कुशल व्यवसायी प्रमाणित होते देखे जा सकते हैं। फिर भी शिक्षा व्यक्ति के लिए निसंदेह आवश्यक है, पर केवल आत्मबोध और अंत: शक्तियों के जागरण के लिए, न कि व्यवसाय विशेष में प्रवेश पाने के लिए। इसे दुखद स्थिति ही कहा जाएगा कि आज शिक्षा और व्यवसाय या रोजगार के प्रश्न को एक साथ जोड़ दिया गया है। शिक्षा को एक प्रकार से रोजगार या व्यवसाय प्राप्त करने की गारंटी माना जाने लगा है। यह स्थिति सुखद नहीं कही जा सकती। इसे दुर्भाग्यपूर्ण माना जाना चाहिए।

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उद्देश्य

आज प्रत्येक व्यक्ति जिस किसी भी तरह से शिक्षा के नाम पर कुछ डिप्लोमा-डिग्रियाँ प्राप्त कर अपने आपको अच्छे से अच्छा व्यवसाय या रोजगार पाने का अधिकारी मानने लगता है। अधिकांश माता-पिता भी बच्चों को स्कूल-कॉलेज में इसी इच्छा से भेजते या भेजना चाहते हैं कि वह कोई अच्छा सा रोजगार पा जाएगा। यही वह मानसिकता है जिसने आज न केवल शिक्षा के उद्देश्य को ही नष्ट कर दिया है, बल्कि उसे एक प्रकार का व्यवसाय ही बना डाला है। जब शिक्षा-प्राप्ति के साथ व्यावसायिक या रोजगार प्राप्ति संबंधी दृष्टि जुड़ ही गई है, तब क्या अच्छा और उचित न होगा कि वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को रोजगार- केंद्रित बनाया जाए?

भारत जैसे अविकसित, निर्धन और बेकारों से संपन्न देश में शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण व्यवसायोन्मुखी हो जाना बहुत अधिक अस्वाभाविक या असंगत भी नहीं लगता। फिर जिस देश में आम जनों की रोटी, कपड़ा, मकान जैसी प्राथमिक और आवश्यक जरूरतें भी पूरी न होती हो, कदम-कदम पर अभाव-अभियोगों से दो-चार होना पड़ रहा हो, महँगाई का निरंतर विकास और उपभोक्ता वस्तुओं के दाम आकाश को छू रहे हो, वहाँ का खाता-पीता व्यक्ति भी केवल शिक्षा के लिए शिक्षा की बात नहीं सोच सकता। शिक्षा प्राप्ति की प्रेरणा के मूल में व्यावसायिक लाभ की इच्छा रहना स्वाभाविक ही लगता प्रतीत होता है।

व्यवसायोन्मुख शिक्षा

महात्मा गाँधी ने भारत की अभाव-अभियोग की इस स्थिति को बहुत पहले ही भाँप लिया था। इसी कारण उन्होंने रोजगारोन्मुख बुनियादी शिक्षा दे पाने वाले स्कूल-कॉलेज खोलने की बात कही थी। इस प्रकार के कुछ स्कूल खुलवाए भी थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद देश विभाजन से पीड़ित शरणार्थियों की रोजी-रोटी की व्यवस्था करने के लिए पंजाब आदि प्रांतों में भारत सरकार ने भी कुछ ऐसे स्कूल चलाए थे, जो शिक्षा के साथ-साथ अनेक प्रकार के व्यवसाय भी सिखाते थे। आशा तो यह थी कि उनका व्यापक विस्तार करके सारे देश की शिक्षा प्रणाली को पूर्णतया व्यवसायोन्मुख बना दिया जाएगा, परंतु हुआ विपरीत ही। इस प्रकार के और शिक्षा संस्थान तो क्या खुलते, जो खोले और चलाए गए थे, आज उनका भी कुछ अता-पता बाकी नहीं।

अब जो शिक्षा-पद्धति चालू है वह निश्चय ही अक्षर ज्ञान या अधिक से अधिक कुछ किताबी विषयों का ज्ञान कराने से अधिक कुछ नहीं कर या सिखा पाती। वह अपनी सामयिक उपयोगिता खो चुकी है। यह बात नहीं कि देश की सरकार और नेता वर्ग इस तथ्य से परिचित ही न हो। सभी स्तर पर लोग इस बात से भली प्रकार से परिचित हैं। तभी तो समय-समय पर शिक्षा को व्यवसायोन्मुख बनाने की बातें कही जाती हैं। परंतु परिणाम कुछ नहीं निकल पाता है।

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शिक्षा और व्यवसाय में संबंध

कोई भी शिक्षा समय की माँग और आवश्यकता को ध्यान में रखने पर ही सफल सार्थक कही जा सकती है। आज की माँग और आवश्यकता स्पष्ट है कि शिक्षा और व्यवसाय में परस्पर सीधा संबंध स्थापित किया जाए। यह ठीक है कि सरकार की प्रेरणा से विश्वविद्यालयों में व्यवसाय से संबंधित कुछ विषय निर्धारित किए गए हैं। माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा स्तर पर भी कुछ ऐसे पाठ्यक्रम नियोजित किए गए हैं, पर उन सब का रुख नौकरी पाना ही अधिक है, जबकि प्रत्येक वर्ष इन विषयों को पढ़कर स्कूलों, कॉलेजों से निकलने वाले हजारों-लाखों को सरकार तो क्या सारा देश मिलकर भी नौकरी उपलब्ध नहीं करा सकता।

यह भी ठीक है कि तकनीकी, इंजीनियरी आदि शिक्षा देने के लिए सरकार ने कुछ अलग केंद्र स्थापित किए हैं, पर एक तो ऐसे केंद्रों की संख्या बहुत कम है, दूसरे स्कूलों-कॉलेजों में दी जाने वाली शिक्षा के साथ इस प्रकार के शिक्षण- प्रशिक्षण का कोई तालमेल नहीं बैठता। ऐसी दुविधापूर्ण स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि वर्तमान समूची शिक्षा-प्रणाली के ढाँचे में आमूल-चूल परिवर्तन लाकर प्रारंभिक शिक्षा से ही बुनियादी और व्यवसायोन्मुख शिक्षा प्रणाली लागू की जाए। तभी वह वर्तमान आवश्यकता पूर्ति में सार्थक सहयोग प्रदान कर पाने में समर्थ हो सकेगी। अन्यथा उसकी निरर्थकता का हो-हल्ला मचता ही रहेगा।

उपसंहार

चालू शिक्षा-प्रणाली क्योंकि नवयुवक को रोजगार नहीं दे पाती। अतः वह अपने आप को भीतर तक खाली-खाली अनुभव करता है। खाली मन भूतों का डेरा कहा जाता है। आज शिक्षित कहा जाने वाला एक बहुत बड़ा वर्ग जो अनेक प्रकार की अराजकताओं में लिप्त है, उसे रोजगार या व्यवसाय में लगाकर ही दूर किया जा सकता है। बड़े होकर या बीए, एमए पास करके कोई व्यवसायिक प्रशिक्षण पाने की पहले तो मानसिकता बन पाना ही कठिन हुआ करता है, फिर अवसर भी प्रायः व्यतीत हो चुका होता है। इस स्थिति में तो व्यक्ति कार्य ही चाहता है।

यदि प्रारंभिक शिक्षा को ही व्यवसायोन्मुख कर दिया जाएगा, तो शिक्षार्थी के मन-मस्तिष्क का विकास उसी प्रकार की मानसिकता एवं वातावरण में होगा। तब आगे के लिए कोई असुविधा या चिंता नहीं रह जायेगी। व्यक्ति स्वयं ही अपने व्यावसायिक लक्ष्यों की उच्चता को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहेगा। ऐसा करने पर प्रगति और विकास के लक्ष्य तो प्राप्त हो ही जाएंगे, शिक्षा भी समकालिक संदर्भों में सार्थकता सफलता पा लेगी।

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