शिक्षा और परीक्षा पर निबंध | siksha aur pariksha par nibandh

siksha aur pariksha par nibandh

भूमिका

आज शिक्षा के साथ परीक्षा शब्द अनिवार्य रूप से जुड़ चुका है। फिर भी शिक्षा का वास्तविक अर्थ कुछ पुस्तकें पढ़कर, कुछ परीक्षाएँ पास कर लेना ही नहीं हुआ करता। शिक्षा का वास्तविक प्रयोजन और अर्थ होता है व्यक्ति को इस योग्य बनाना कि वह पढ़-लिखकर विवेकशील बन सके। उसे अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित और अपने साथ-साथ राष्ट्रीय एवं सहज मानवीय हानि-लाभ का भी समुचित ज्ञान प्राप्त हो सके। कुल मिलाकर शिक्षा का वास्तविक अर्थ और प्रयोजन है आदमी का विवेक जागृत करना, उसे अपनी कार्य शक्तियों का ज्ञान कराकर उसकी जानकारियों के स्रोतों और क्षेत्रों का विकास करना, ताकि वह सुयोग्य बनकर अपना जीवन सफलतापूर्वक बिता सकें।

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अपने साथ-साथ राष्ट्र और मानवता का कल्याण करने में भी सहायक हो सके। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि शिक्षा के साथ परीक्षाओं का कोई महत्व या मूल्य नहीं है। फिर भी यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि आज शिक्षा के साथ परीक्षा को अनिवार्य रूप से जोड़ दिया गया है। आज कुछ परीक्षाएँ पास कर लेने वाले व्यक्ति को शिक्षित और ज्ञानवान माना जाता है। वह भी उस स्थिति में, जबकि आज की परीक्षा-प्रणाली अनेक प्रकार से दूषित हो चुकी है। उसका वास्तविक महत्व दिन-प्रतिदिन निरंतर घटता जा रहा है।

दोष

शिक्षा-पद्धति की तरह आज की परीक्षा-प्रणाली भी अनेक दोषों से पूर्ण है। उसका सबसे बड़ा दोष तो यह है कि प्राय: विद्यार्थी साल भर तो मटरगश्ती करता रहता है, या अन्य गतिविधियों में अपने आप को उलझाये रहता है। जैसे ही परीक्षा के दिन समीप आए, उसने कुछ कुंजियाँ या सहायक पुस्तकें पकड़ ली, पिछ्ली परीक्षा में पूछे गए कुछ प्रश्न छाँटे और उन्हें रट-रटा के याद कर लिया, परीक्षा दी और पास हो गए।

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विचित्र स्थिति यह है कि आज परीक्षाओं में जो प्रश्न पूछे जाते हैं, वे भी वही घिसे-पीटे पुराने और एक ही पैटर्न के, जिनके उत्तर तैयार करने और लिखने में विद्यार्थी को परिश्रम नहीं करना पड़ता। परिणाम यह होता है कि परीक्षा पास कर लेने के बाद भी वास्तविक ज्ञान या जानकारी के नाम पर वह प्रायः कोरा कागज की प्रमाणित होता है। क्या इसी को शिक्षा कहते हैं? शिक्षा की यह कितनी बड़ी विडंबना है।

अन्य दोष

इसके साथ ही आज की परीक्षा-प्रणाली और भी कई प्रकार से दूषित हो चुकी है। कहा जाता है कि प्रश्न पत्र बनाने वाले अध्यापक अपने से ट्यूशन पढ़ने वाले छात्रों को प्रायः वही प्रश्न तैयार कराते हैं, जो उन्होंने पूछे होते हैं। इससे परीक्षा-परिणाम तो अच्छा आ जाता है, पर वास्तविक शिक्षा और ज्ञान के नाम पर विद्यार्थी अपने को कोरा का कोरा ही पाता है।

इसी प्रकार धन के लालच में प्रश्न पत्रों की चोरी-छिपे आउट करा देना, परीक्षा में नकल का सहारा लेना, परीक्षकों से अपनी पहुँच के बल पर अधिक अंक प्राप्त कर लेना, परीक्षकों का पक्षपात, चाकू, छुरी, पिस्तौल या बंदूक की गोली के बल पर नकल करना, परीक्षकों को डरा-धमकाकर या मारपीट– यहाँ तक कि हत्या आदि करके परीक्षा में सफल होने का प्रयत्न करना आदि कई प्रकार की लोमहर्षक बुराइयाँ आज की परीक्षा-प्रणाली के साथ जुड़ गई है। ऐसी स्थिति में वास्तविक शिक्षा और उसके उद्देश्य का महत्व कहाँ रह जाता है? वह तो स्वयं ही नष्ट हो जाता है।

परीक्षा का सही मापदंड

परीक्षा में अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण हो जाना एक संयोग भी माना जाता है। कई बार ऐसा होता है कि संयोगवश अच्छे और योग्य विद्यार्थी असफल हो जाते हैं, या कम अंक प्राप्त कर पाते हैं, जबकि ऐसे विद्यार्थी अच्छे अंक पाकर सफल हो जाते हैं कि जिन्हें न तो कभी किसी ने पढ़ते- लिखते देखा होता है और न ही उनके उत्तीर्ण होने की आशा ही किसी को रहा करती है। ऐसी स्थिति में परीक्षा को ही किसी की वास्तविक शिक्षा और योग्यता का मापदंड कैसे स्वीकार किया जा सकता है?

वास्तव में आज की परीक्षा-प्रणाली ने शिक्षा को एक ऐसी मशीन बना दिया है, जो अपनी जड़ यांत्रिकता में बिना सोचे-समझे योग्य- अयोग्य सभी प्रकार के लोगों का निरंतर उत्पादन करती जा रही है। यह भी नहीं सोचती कि उनका भविष्य क्या होगा? उनके अपने भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा? आज जो शिक्षित बेरोजगारों की भीड़ लगी है, उसका एक बड़ा कारण यह भ्रष्ट और अनावश्यक शिक्षा और परीक्षा-प्रणाली भी है, ऐसा सभी समझदार स्वीकार करते हैं।

उपाय

इन त्रुटियों से बचने का एकमात्र उपाय यही संभव हो सकता है कि इस शिक्षा और परीक्षा-प्रणाली दोनों को व्यावहारिक बनाया जाए। विशेषकर परीक्षा की सफलता का मानदंड बदला जाए। इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता शिक्षा जगत में विभिन्न स्थानों पर फैले भ्रष्टाचार को दूर करने की है। भाई-भतीजावाद और सिफारिशवाद के साथ-साथ राजनीति के चक्करों से मुक्ति दिलाने की है। शिक्षण का कार्य वास्तविक योग्य व्यक्तियों को सौंपा जाना चाहिए। घिसे-पिटे प्रश्न पूछने की परीक्षा-प्रणाली को समाप्त कर अपेक्षित विषय के संपूर्ण ज्ञान को परीक्षा का आधार बनाना चाहिए।

शिक्षा और परीक्षा के इच्छुक छात्र के आम व्यवहार, उनकी धारणा और ग्रहण करने की शक्ति को भी उसकी सफलता असफलता का मापदंड बनाया जाना चाहिए। इसी प्रकार घिसे-पीटे पाठ्यक्रमों में भी व्यावहारिक परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। उच्च शिक्षा के अधिकार को योग्यतम व्यक्तियों के लिए सीमित कर देना भी शिक्षा और देश के हित में होगा। ऐसा करके ही वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के साथ जुड़ी परीक्षा-प्रणाली में अपेक्षित सुधार लाया जा सकता है। उसे सच्चे अर्थों में उपयोगी एवं उत्पादक बनाया जा सकता है। राष्ट्र हित भी तभी संभव हो सकता है।

उपसंहार

आवश्यक परिवर्तन और सुधार का उपाय कोई भी हो, यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि शिक्षा का वास्तविक अर्थ और उद्देश्य मानव को विकसित बनाना है। उसे सभी प्रकार से योग्य और देश, जाति, राष्ट्र तथा मानवता के लिए उपयोगी बनाना है। सबसे बड़ी बात है—- व्यावहारिकता। जो शिक्षा और परीक्षा-प्रणाली मानव को व्यावहारिकता नहीं दे सकती, उसे जितनी जल्दी समाप्त कर या बदल दिया जाए, उतना ही लाभप्रद होगा। प्रगति पथ पर अग्रसर भारत के लिए तो यह परिवर्तन बुनियादी और प्राथमिक आवश्यकता है।

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