गरीब मजदूर पर निबंध | Garib majdur par nibandh

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भूमिका

संसार में गरीबी को सबसे बड़ा पाप कहा गया है । गरीबी को सारे पापों , सभी प्रकार की बुराइयों की जड़ भी माना जाता है । कहा जाता है कि भूखा गरीब कुछ भी कर सकता है । भूखा पेट आदमी से कुछ भी करवा सकता है । गरीबी वास्तव में आदमी को आदमी ही नहीं रहने देती , बस एक ढाँचा या पुतला – सा बना कर रख देती है । यदि ईमानदारी और सच्चाई कहीं सुरक्षित है, तो इन ग़रीब मजदूरों के जीवन और व्यवहारों में ही बच पायी है , जो भूखे – प्यासे रहकर भी मुफ्त या पाप की कमाई को हाथ लगाना हराम मानते हैं । इस प्रकार की बातें कहकर जहाँ एक ओर हम गरीबों – मजदूरों के लिए अपना अच्छा भाव प्रकट करते हैं , वहाँ व्यवहार में उनकी मेहनत – मजदूरी का पूरा दाम न देकर हर क़दम पर उनका शोषण भी करते रहते हैं ।

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दिहाड़ी मजदूरों की समस्या

संसार में घटने वाली हर छोटी – बड़ी घटना का सीधा प्रभाव ग़रीब मज़दूरों पर पड़ता है । हर प्रकार की दुर्घटना का कुफल भी उन्हीं को भोगना पड़ता है । जो मजदूर संगठित क्षेत्रों में काम करते हैं , उनका तो फिर भी कुछ बचाव हो जाता है , पर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले दिहाड़ीदार मजदूरों को तो झेलना ही पड़ता है । कहीं दंगा – फसाद हो जाये , इनको दिहाड़ी मिलना बन्द हो जाता है । कहीं कर्फ़्यू लग जाता है , इन्हें काम नहीं मिलता । कर्फ्यू लम्बा खिंच जाने पर तो उनकी हालत और भी खराब पड़ जाती है । जान तक के लाले पड़ जाते हैं । Garib majdur par nibandh

हड़ताल या बन्द होने का दुष्परिणाम भी बेचारे ग़रीब मजदूरों को ही भोगना पड़ता है । इसी प्रकार सर्दी , गर्मी , बरसात आदि के मौसम भी इन्हीं के शत्रु बनकर आया करते हैं । इन मौसमों की भयानकता में बेचारे मजदूरों और उनके परिवारों पर जो बीतती है , उसका वर्णन कभी – कभी अखबारों में पढ़ने को मिल जाया करता है ! ज्यादा सर्दी पड़े , तब गरीब मरता है ; बहुत गर्मी पड़े , तब गरीब को मरना पड़ता है । बरसात हो , तब भी गरीबों की झोपड़ियाँ बहकर उन्हें कहीं का नहीं रहने देती ! महँगाई की मार उसे अलग से परेशान किये रहा करती है । इस प्रकार प्रकृति का प्रकोप हो , या फिर मनुष्य के स्वार्थी कर्मो का प्रकोप हो, हर तरह से मारना बेचारे ग़रीब मजदूर को ही होता है ।

मजदूरों की श्रेणी

गरीब मजदूरों की मुख्य दो श्रेणियाँ मानी जाती हैं – एक , संगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूर । दूसरे , असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मज़दूर ! बड़े – बड़े कल – कारखानों में काम करने वाले मजदूरों को संगठित क्षेत्रों के मज़दूर माना जाता है । इनकी दशा उतनी खराब और दयनीय नहीं मानी जाती । इसका कारण यह है कि आजकल इनकी अपनी यूनियनें हैं । उनका सम्बन्ध किसी – न – किसी राजनीतिक दल से होता है । Garib majdur par nibandh

वे राजनीतिक दल यूनियनों के माध्यम से संगठित क्षेत्र के मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करते रहते हैं । इस कारण काफी अच्छा वेतन , बोनस , फण्ड, चिकित्सा सुविधा आदि कई तरह की सुविधाएँ इन्हें मिलती रहती हैं । इस कारण जब ‘गरीब मजदूर’ जैसे शीर्षकों के अन्तर्गत विचार किया जाता है , तो प्राय : अभिप्राय संगठित क्षेत्रों के मजदूर न होकर असंगठित क्षेत्र में रहकर छोटे – मोटे तरह – तरह के धन्धे करने वाले मजदूर हुआ करते हैं ।

असंगठित क्षेत्र के मजदूर

झल्ली वाले, सड़क कूटने – बनाने वाले, भवन – मजदूर , खेतों में काम करने वाले , ढाबों तन्दूरों और चाय को दुकानों पर प्लेटें – वर्तन धोने – मांजने वाले , रिक्शा चलाने वाले , दुकानों पर काम करने वाले सभी प्रकार के मजदूर प्रायः इसी श्रेणी में आते हैं । इन श्रेणियों में आने वाले सभी प्रकार के गरीब मजदूरों से आठ – दस घण्टों से लेकर पन्द्रह – सोलह घण्टों तक काम लिया जाता है, या विवशतापूर्वक इन्हें शक्ति से अधिक काम करना पड़ता है , फिर भी इनकी दशा सुधरती नहीं । पेट भर अन्न नहीं मिल पाता । तन पर कपड़े नहीं होते ।

सिर पर छत नहीं होती। सभी प्रकार की ऋतुओं के प्रकोपों से बचने का कोई उपाय नहीं रहा करता ! बस , पशुओं की तरह खाली पेट , नंगे बदन लगातार खटते रहना पड़ता है । अभावों में पलने के कारण इस प्रकार के मज़दूर अपने बच्चों की तरफ एकदम ध्यान नहीं दे पाते । फलस्वरूप इधर-उधर भूखे – प्यासे और लगभग नंगे घूमते – फिरते इनके बच्चे या तो आवारा हो जाते हैं , या फिर अबोध आयु में ही छोटी – मोटी मजदूरी करने के लिए विवश हो जाते हैं । आगे फिर इनके बच्चों के साथ भी यही सब बीतता है । इस तरह इनकी गरीबी और मजदूरी का चक्कर कभी समाप्त नहीं हो पाता ।

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खेतिहर मजदूर

गरीब मजदूरों का ऐसा वर्ग भी है , जिसे सामान्य मजदूरी का काम भी हमेशा नहीं मिल पाता ! देहातों में खेतिहर मजदूरों को केवल फसल बोने – काटते के समय ही काम मिल पाता है । बाकी समय वे महाजनों , बनियों या जमींदारों के यहाँ बेगार करके और उनसे ऋण लेकर गुजारा करते हैं । मज़दूरी शुरू होने पर उस ऋण को चुकाने में ही अधिकता चुक जाते हैं , इस कारण भविष्य की सुरक्षा के लिए कुछ बचा नहीं पाते ।

नगरों में , घरों में रंग – रोगन या सफेदी करके गुजर – बसर करने वाले मजदूरों की दशा भी ऐसी ही हुआ करती है । वे झुण्ड बनाकर सड़कों पर बैठे इस बात का इन्तजार करते रहते हैं कि कोई आकर उन्हें रंग – रोगन के लिए बुला ले जाये ! उन बेचारों को कई बार कई – कई दिन ग्राहकों की प्रतीक्षा में भूखों ही बिताने पड़ जाते हैं । अक्सर आधे पेट ही रह जाना पड़ता है । दिवाली जैसे त्योहारों के आस – पास ही इन्हें कुछ दिनों के लिए काम मिल पाता है ।

इस प्रकारका जीवन – यापन करने वाले इन गरीब मजदूरों की चिन्ता सरकार तो करती ही नहीं , राजनीतिक दल भी नहीं करते ! इस कारण महँगाई की मार से दिन – प्रतिदिन इनकी हालत और भी खस्ता होती जा रही है । झल्ली ढोने और रिक्शा चलाने वाले आदमी और सामान तो खूब ढ़ोते हैं , कई बार इन्हें अपने आकार – प्रकार से भी कहीं अधिक सामान उठाये या सवारियाँ लादे हुए देखा जा सकता है ; पर बड़ी – बड़ी दुकानों पर चुपचाप लुट जाने वाले लोग इन्हें उचित किराया नहीं देना चाहते । इस कारण इन बेचारों की दशा भी कभी सुधर नहीं पाती ।

बोझ उठाने वाले मजदूर

इधर – उधर धूमकर रद्दी कागज़ या प्लास्टिक की पन्नियाँ बीन कर गुज़ारा करने वाले मजदूरों की भी इस देश में कमी नहीं है । सब्ज़ी – मण्डियों , अनाज – मण्डियों में माल लादने – उतारने जाले मजदूरों का भी एक बहुत बड़ा वर्ग इस देश में है । नियमित काम मिलते रहने के कारण इन लदान-उतरान करने वाले मजदूरों का जीवन उतना कठिन या मुसीबत में नहीं , पर इन्हें पशुओं की तरह सारा – सारा दिन काम करते रहने को तो मजबूर रहना ही पड़ता है।

इस प्रकार हमारे देश में आर्थिक दृष्टि से एक मज़दूर ग़रीबी की सामान्य सीमा – रेखा भी नीचे रहकर जीवन बिता रहा है , दूसरा नितान्त गरीबी – लाचारी का जीवन बिता रहा है । यह बात नहीं कि हमारे राजनेता और सरकार इनकी हालत जानते नहीं , अवश्य जानते हैं , पर कुछ आकर्षक नारे लगाने और इनके वोट हड़पने से अधिक करते कुछ नहीं । यही कारण है कि बेचारे ग़रीब मज़दूर की हालत सब प्रकार के उत्पादन और निर्माण करने के उपरान्त भी और अधिक ग़रीब होती जा रही है ।

निष्कर्ष

भारतीय मजदूर जनसंख्या बढ़ाकर मज़दूरों , गरीबों और बेकारों की भीड़ इकट्ठी करने में भी वह आगे – आगे है । शिक्षा का उसके जीवन में अभाव है । अत : कई बार अपनी विषम स्थितियों से निकलना चाह कर भी वह निकल नहीं पाता । ऐसी दशा में मज़दूर – हित की राजनीतिक दुकान चलाने वालों का कर्तव्य हो जाता है कि वे उन्हें कम – से – कम इतना शिक्षित बनाने की कोशिश तो करें ही कि वे अपने को आदमी समझ सकें । आदमी होने के नाते अपने अधिकारों को पहचान कर उन्हें पाने की कोशिश कर सकें ।

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